श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
33. शची संतोष
'है तो कल्पवृक्ष ही; किन्तु पता नहीं क्यों महारानी ने इस झंखाड़ को स्वर्ग से लाकर यहाँ प्रांगण में लगा दिया है।' दासी ने कहा- 'मैंने भी समझा था कि माँगने पर यह अभीष्ट दे सकता होगा। मेरी याचना पूर्ण नहीं कर सका तो पुष्प-पत्र सब गिराकर सब सूख-सा गया। मुझे इस पर दया आती है। तू वही भूल मत करना।' 'क्या मांगा था तुमने?' शची ने पूछा। 'क्या मैंने माँगा था और तू क्या माँगेगी?' दासी खुलकर हँस पड़ी- 'द्वारिका में अपनी महारानी के चरणों में अविचल अनुराग को छोड़कर दूसरा भी कुछ माँगना है किसी को?' दासी चली गयी शीघ्र तो कल्पवृक्ष से पुनः शब्द सुनायी पड़ा- 'देवि! देखती ही हो कि सुरपादप यहाँ कितना कंगाल है। यह केवल अर्थ, धर्म काम दे सकता है और यहाँ की रज में मुक्ति लुण्ठित है। इस अनुराग भूमि पर पारिजात की शक्ति केवल विडम्बना है।' 'तुम महारानी के चरण-दर्शन में मेरी कुछ सहायता कर सकते हो?' शची ने संकोच से पूछा। 'आप जानती हैं कि यह मेरी शक्ति-सीमा में नहीं है; किन्तु आज महोत्सव का दिन है। महारानी का द्वार सबके लिए उन्मुक्त है।' सुरपादप ने स्नेहपूर्वक कहा। शची अन्तःपुर में चली गयीं और भीत-संकुचित महारानी सत्यभामा के चरणों में झुकीं तो सत्यभामा ने भुजाओं में भरकर उन्हें हृदय से लगा लिया- 'सखि! तू अच्छे अवसर पर आ गयी। मुझे आज तेरी सहायता अपेक्षित है। मेरे स्वामी ने आज ही भौमपुर से लायी 16,100 कन्याओं का पाणि-ग्रहण किया है। वे मेरी अनुजाएँ आज नववधू बनी है। मुझसे आशीर्वाद लेने वे अभी आती होंगी। मैं मानवी हूँ, मेरी शक्ति की मर्यादा है; किन्तु तू देवी है। तू श्रान्त नहीं होगी। सुरपादप के पुष्प अंचल में भर ले और मेरी ओर से उन बहिनों के चरणों पर अंजलि अर्पित कर।' शची हर्ष विह्वल हो गयीं इस औदार्य से। इसका नाम महानता है- यह उन स्वर्ग-साम्राज्ञी ने यहाँ सीखा। कोई उपालम्भ नहीं, कोई व्यंग नहीं और जो सम्मान पाने का स्वप्न भी कोई न देख सके- महारानी का प्रतिनिधित्व, वह इतने सहज भाव से महारानी ने दे दिया उन्हें। अमरपुर में महारानी की अर्चा का सुअवसर आया था; किन्तु अंहकारवश वह भार शची ने सेविका पर डाल दिया। कल्पवृक्ष के सुमनों से महारानी के चरणार्चन का सौभाग्य-शची के मन में यहाँ आकर यह महत्तम कामना थी। यही उनके लिए उचित क्षमा-दान था। श्रीकृष्णचन्द्र की 16,100 रानियों के चरणार्चन-उनके नव-विवाहिता होने के अवसर पर कल्पवृक्ष के उन्हीं पुष्पों से और वह भी महारानी सत्यभामा की ओर से-शची का हृदय संतुष्ट हो गया महारानी की इस अनुकम्पा से। कल्पवृक्ष के नीचे जाकर शची ने अंचल फैलाया तो ऊपर तक सुमनों से वह भर गया। शची के जीवन में इतना उल्लास, इतना आनन्द प्रथम प्रकट हुआ जब वे पुष्पांजलि देने को प्रस्तुत हुईं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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