श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
33. शची संतोष
शची का मस्तक झुक गया। वे पद-नख से कुरेदने लगी थीं। अब क्या करें वे? कुछ सूझता नहीं था। 'तू द्वारिका चली जा और उन सर्वेश्वर की महिमामयी सहधर्मिणी से क्षमा माँग ले। वे परमोदारा तुझे क्षमा कर देंगी।' मय ने स्नेह-सिक्त स्वर में कहा- 'किन्तु स्मरण रखना कि उन निखिल लोकेश्वर की सहचरी ने भले उदारतापूर्वक तेरा सिंहासन स्वीकार कर लिया हो, द्वारिका में यदि तू किसी दासी के पादपीठ पर भी बैठ गयी तो संयमिनी के स्वामी यमराज किसी भी नरक में तुझे फेंक देने में इन्द्र का कोई संकोच नहीं करेंगे।' शची इस चेतावनी को सुनते ही काँप गयी। उन्हें अब स्मरण आया कि सत्यभामा यमानुजा कालिन्दी की सपत्नी हैं। अब यदि सचमुच धर्मराज रुष्ट हुए हों, आश्चर्य क्या। सत्यभामा को भी वे बहिन ही मानेंगे और उनका अपमान करने की धृष्टता तो हो ही गयी। शची को भी द्वारिका जाने में ही अपनी कुशल दीखी। शची सुर-साम्रज्ञी हैं। वस्तु एवं व्यक्ति में जो दिव्यता हैं, उनके नेत्र देख सकते हैं। स्वर्ग में वे गर्वान्ध थीं; किन्तु विगलित-गर्वा शची द्वारिका पहुँचते ही चकित हो गयीं। 'यह दिव्य धरा!' यहाँ का तो कण-कण चिन्तामणि है।' शची समझ नहीं पाती थीं कि जहाँ का कण्टक तरु भी कल्पवृक्ष का प्रभाव रखता है, वहाँ की महारानी ने कल्पद्रुम के हरण का कष्ट क्यों उठाया। अब शची को लगा कि वे यहाँ कितनी नगण्या हैं। कल्पवृक्ष दूर से दीख गया। वह महारानी सत्यभामा के प्रांगण में लगा था; किन्तु न किसी ने उसकी पूजा की थी और न उसे जल दिया था। जैसे द्वारिका में वह उपेक्षणीय था। 'इतना पुष्पभार!' शची आश्चर्य से कल्पवृक्ष को देखती रह गयीं। स्वर्ग में वे स्वयं इसकी अर्चना करती रही हैं; किन्तु वहाँ तो इसमें कभी इतने पुष्प नहीं आये। यहाँ तो लगता है कि यह पुष्पों से ही बना है। 'देवि! तुम आश्चर्य क्यों देखती हो?' कल्पवृक्ष से वाणी व्यक्त हुई- 'देखती ही हो कि मैं इस दिव्य धरा पर कितना महत्त्वहीन हूँ; किन्तु मुझे यह सौभाग्य मिला है कि मैं महारानी के प्रांगण में हूँ। वे महिमामयी कदाचित कभी देख लेती हैं मेरी ओर अनुराग पर सात्त्विकतां का सुकोमल भार उठाये मेरे सुमनों को देखकर हँस पड़ती हैं। उनकी प्रसन्नता का पात्र बना मैं यहाँ आकर।' 'तू यहाँ क्या कर रही है?' अचानक एक दासी ने शची को देख लिया। समीप आ गयी। द्वारिका में उसकी महारानी के यहाँ पता नहीं कितनी दिव्यदेहा आती ही रहती हैं महारानी की पद-वन्दना करते। दासी ने न तो शची से परिचय पूछा, न कोई हिचक दिखलायी। स्नेहपूर्वक बोली- 'इनसे कुछ माँगने की भूल मत करना।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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