श्रीकृष्णांक
पूर्णावतार श्रीकृष्ण
यो मां पश्यचि सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । ‘जो मुझे सब जगह देखता है और सब (विश्व) को मुझमें देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये कभी अदृश्य नहीं होता’
इस अनुभव का स्पष्टार्थ यह है कि ध्यान निष्ठा का साधन बढ़ जाने पर- उसके बल से अभ्यास हो जाने पर, आंखों के सामने आया हुआ प्रत्येक पदार्थ उस वस्तुरुप में न दीखकर उसके स्थान में बांसुरी बजाते हुए, भगवान श्रीगोपालकृष्ण का साकार सावयव श्यामसुन्दर प्रत्यक्ष दीखने लगता है। ऐसा नहीं कि, वह रुप कोई अभ्यास हो या भ्रम से दीखता हो, बल्कि उस रुप में स्वयं परमेश्वर ही अपने दिव्य तेज और सामर्थ्यसहित खास तौर पर प्रकट हुए हैं। इस बात का निश्चय करने के लिए यह कह सकते हैं कि भगवान की उस मूर्ति में भूतकालीन इतिहास का, जिससे कि हम अनभिज्ञ हैं, प्रत्यक्ष अवलोकन करें अथवा वर्तमान काल में दूरातिदूर घटित हुई घटना का प्रत्यक्ष दर्शन करें, या भविष्य में होने वाली किसी घटना का भी चित्र (बायस्कोप के सदृश) देखें और फिर यदि ये सब बातें सच निकलें तो वह दर्शन कोई आभाष या कल्पना नहीं है, वह प्रत्यक्ष परमेश्वर के ही दर्शन हैं, ऐसा समझकर फिर उसके साथ एकरुप हो जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 6।30
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