श्रीकृष्णांक
अद्भुतकर्मी श्रीकृष्ण
रात के समय एक भयानक अजगर ने आकर नन्दजी के पैर को पकड़ लिया। भयभीत नंदजी ‘हे कृष्ण हे श्यामसुन्दर, मुझे महासर्प निगले जाता है इस संकट से बचाओ’ पुकारने लगे। गोपों ने अनेक उपाय किये परन्तु अजगर ने उन्हें नहीं छोड़ा। अन्त में श्रीकृष्ण ने आकर अपने पैर से अगर को जरा सा छू दिया भगवान का चरण स्पर्श होते ही उसके समस्त पाप नष्ट हो गये और उसी क्षण वह सर्पयोनि से छूटकर परम सुन्दर विद्याधर बन गया। दिव्यस्वरुप और वस्त्राभूषणधारी उस देवपप्रतिम पुरुष ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर गिरकर प्रणाम किया और कहा कि भगवन ! मैं सुदर्शन नामक विद्याधर हूँ मैंने अपने सुन्दर रुप के मद में चूर होने क कारण एक दिन रास्ते में अंगिरा ॠषि के वंशज कुछ कुरूप मुनियों कोदखकर हंस दिया था। इसी से उन्होंने मुझे सर्प होने के शाप दे दिया था। मैं देखता हूँ कि मुझ पर उन मुनिवरों ने शाप देखकर बड़ा ही अनुग्रह किया जिसके प्रताप से आज मैं आप त्रैलोक्यगुरु के दुर्लभ चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त कर पापरहित हो गया। ब्रह्मादण्डाद्विमुक्तोअहं सद्यस्तेअच्युत दर्शनात्। हे प्रभो आपका दर्शन होते ही मैं जो ब्रह्माशाप से मुक्त हो गया, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। आपका नाम कीर्तन करने वाला ही जब सुनने वालों सहित तत्काल पवित्र हो जाता है तब मुझे तो आपके चरण कमलों का स्पर्श प्राप्त हुआ है। फिर मेरे मुक्त होने में क्या संदेह है। एक समय राम को वन में श्रीकृष्ण बलदेव मधुर गान कर रहे थे और गोपियां प्रेम विह्वल होकर सुन रही थीं, इतने में ही कुबेर का एक शंकचूड़ नाम अनुचर यक्ष कुछ गोपियों को उठाकर चल दिया, गोपियां चिल्लाने लगीं, परन्तु उसने छोड़ा नहीं, तब श्रीकृष्ण बलदेव उन्हें आश्वासन देते हुए उसके पीछे दौड़े और शीघ्र ही उसके पास जा पहुँचे, वह गोपियों को छोड़कर प्राण लेकर भागा, परन्तु श्रीकृष्ण ने उसका पीछा किया और उसे मारकर उसके सिर के चूड़ामणि निकाल लाये। श्रीकृष्ण बलदेव को साथ लेकर अक्रूर जी मथुरा को चले। श्रीकृष्ण प्राणा गोपियां विरहचिन्ता से अत्यंत कातर हो सारी लोकलाज को त्यागकर ऊंचे स्वर से हे गोविन्द, हे दामोदर, हे माधव कहकर विलाप करने लगीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10।34।17
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