श्रीकृष्णांक
महाराष्ट्र में श्रीकृष्ण-भक्ति
जो गोपाल ब्रह्मविद्या की मूर्ति हैं, जिनकी लीला श्रुति, सनकादि को भी मालूम नहीं होती, उनसे मिलने के लिए मेरा मन अत्यंत छटपटा रहा है। विट्ठल स्तवन में ‘वृंदावन में ब्रह्मानंद’ ‘वसुदेव कुमार देवकीनंदन’ ‘खेलें रास वृंदावन में’ त्रिभंग देहुडा ठाण मांडूनियां राहे । अर्थात ‘तीन जगह से टेढ़ा गोविन्द कल्पवृक्ष के नीचे वेणु बजा रहा है, जिससे अन्तरबाह्य में केवल परम आनंद ही भर जाता है, उस सांवले सगुण सकल जीवों के जीवन घनानंद मूर्ति के दर्शन से उसमें मन तल्लीन हो गया और मालूम होता है कि वह जगज्जनक रुक्मिणीवर विट्ठल सर्व चराचर को व्याप्त करके निष्कल ही रहा है’। ज्ञानेश्वर, नामदेव तथा सभी संतों के काव्य में ‘कृष्णाई, कान्हाई, विठाई आदि शब्दों से जैसे बालक माता को पुकारता है वैसे ही अत्यंत प्रेमयुक्त शब्दों में स्तवन किया गया है। भगवान को मातृरुप मानकर ‘तूं माय माउली जीवीचा जिह्वाला’ अर्थात ‘ऐ मेरी माता, तू मेरे प्राणों का प्राण है’ उनकी यह कोमल वाणी सारे समाज के हृदय में बस गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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