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इस प्रकार सारे भारत में श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार हो गया। महाराष्ट्र के संतों ने भी सारे महाराष्ट्र में श्रीकृष्ण भक्ति का प्रसार किया। उन्होंने श्रीकृष्ण के बालरुप को ‘विट्ठल’ नाम दिया और पण्ढरपुर के विट्ठल की मूर्ति की भक्ति में ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल पर्यन्त सबको लगा दिया। ज्ञानेश्वर महाराज (शाके 1195-1215) और नामदेव ने तेरहवीं शताब्दी में महाराष्ट्र भर में श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार किया तथा सारी महाराष्ट्र भूमि को श्रीकृष्ण भक्ति रस के प्रवार से प्लावित कर दिया। कुशलता यह कि, वर्णशंकर तो होने नहीं दिया, परन्तु जाति भेद की तीव्रता नष्ट कर दी। द्वेष, मत्सर तथा अहंकार आदि क्षुद्र विकारों का नाम यिका। देहभाव को नष्ट करके सर्व जातियों को एक कर दिया। यह उनकी बड़ी भारी राष्ट्र सेवा है। ज्ञानेश्वर के समय में ही महाराष्ट्र में महानुभाव अथवा मानभाव नामक एक पन्थ उत्पन्न हुआ था। उस पन्थ में भास्कर, महीन्द्र, भावे, देवव्यास, केशवराज सूरी, दामोदर पण्डित आदि कवि हुए। उन्होंने मराठी भाषा में काव्य रचना की, जो कि मुख्यतया श्रीकृष्ण भक्ति परक थी। परन्तु यह पन्थ तथा इसका काव्य महाराष्ट्र को मान्य नहीं हुआ।
यद्यपि इस पन्थ के कोई कोई ग्रन्थ भक्ति रसयुक्त तथा कवित्वपूर्ण है तथापि इस पन्थ की गूढ़ लिपि तथा इसकी सर्वसाधारण से पृथक रहने की वृति के कारण एवं कुछ अन्य कारणों से इसकी श्रीकृष्ण विषयक वाणी से महाराष्ट्र अपरिचित सा रह गया। इधर दस-बीस साल से लोगों की दृष्टि इस पन्थ के ग्रन्थों की ओर गयी है। परन्तु सारे महाराष्ट्र में फैला हुआ तथा महाराष्ट्र मण्डल पर अपनी छाप रखने वाला सम्प्रदाय तो पण्ढरपुर का भागवत सम्प्रदाय- जिसे वारकरी पन्थ कहते हैं- है। श्रीज्ञानेश्वर तथा नामदेव इसके आदि प्रचारक और एकनाथ एवं तुकाराम इसके संवर्धक थे। पहली जोड़ी तेरहवीं शताब्दी की है और दूसरी पन्द्रहवीं के अन्त और सोलहवीं के पूर्वार्ध में हुई है। इन महात्माओं ने तथा इनके अनुयायी और भावुक भक्तों ने श्रीकृष्ण भक्ति को घर-घर में फैला दिया। निवृतिनाथ, ज्ञानेश्वर, सोपानदेव तथा इनकी बहन मुक्ताबाई औश्र खेचर के शिष्य चांगदेव, बिसोबा खेचर, बिसोबा खेचर के शिष्य नामदेव, नामदेव की दासी जनाबाई तथा इनके अतिरिक्त कान्हों पाठक, परिसा भागवत, जोग, परमानंद तेली, नरहरि सुनार, सांवला माली, गोरा कमहार, सेना नाई, बहिरा पिसा, चोखा मेला, महार और उसकी स्त्री और मेहुणा बांका आदि विभिन्न जातियों, स्थितियों और अधिकारों के बहुत से वैष्णव भक्त एक ही काल में हुए।
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