श्रीकृष्णांक
श्रीराम-कृष्ण का ऐक्य
पद- 217 जो पै दूसरो कोउ होइ । पद- 240 सोई सुकृति सुचित सांचो जाहि राम तुम्हो रीझे । इत्यादि पदों से स्पष्ट है कि परमानन्य रामपासकपूज्यपाद गोस्वामीजी राम और कृष्ण को दो नहीं समझतेथे वरं उनका उनमें अभेदभाव ही था। उनकी कृष्ण गीतावली रचना और नागदमनलीला कराना भी इसी की पुष्टि करता है। वृंदावन के चरित से भी गोस्वामीजी यही उपदेश दे रहे हैं। कहते हैं कि जब गोस्वामी वहाँ श्री मदनमोहन जी को प्रणाम करने को उत्सुक होते दिखायी दिये तब किसी कृष्णोपासक ने उन पर कटाक्ष किया। यह देख वे रुक गये और अपनी स्वरुपानन्यता दिखाते हुए उन्होंने सबके दांत खट्टे कर दिये। इस प्रसंग के दोहेयहाँ उदधृत किये जाते हैं- अपने अपने इष्टे को नवन करै सब कोई । गोस्वामीजी- परशुराम के वचन सुनि मानत हिये हुलास । प्रभु का चरित- मुरली लकुट दुराई कै धरयो धनुष शर हाथ । इस घटना का वास्तविक रुप बाबा बेनीमाधोदास कृत गोसाईंजी के मूल चरित के अनुसार इस प्रकार है- विप्र संत नाभा सहित हरि-दर्शन के हेत । भगवान उनकेलिए श्रीकृष्ण से श्रीराम हो ये, जैसे हनुमानजी के लिए हुए थे। यह वस्तुत: है केवल भगवत-भागवत का विनोद, यह है स्वरुपानन्यता, यह है अभेदभाव में भी रुपानन्यता। इसी प्रकार एक श्रीरामभक्त, एक श्रीकृष्णभक्त और एक श्री शिवभक्त के भाव याद आ पड़े हैं जो बहुत ही प्रसंगानुकूल हैं। अत: प्रेमी पाठकों के लिए उनके श्लोक यहाँ दिये जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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