विशेष विस्तार-भय से यह दीन व्याख्या न करके केवल कुछ और भी विनय के पदांशों को यहाँ उद्धृत मात्र करता है। पाठक स्वयं देख लेंगे कि ‘राम’ और कृष्ण में जगदाचार्य पूज्यापाद श्री मद्भोस्वामी जी अभेद मानते थे-
पद- 106
महाराज रामदरयो धन्य सोई ।
पांडुसुत गोपिका बिदुर कुबरी सबरि,
शुद्ध किये सुद्धता तिनहुंको,
सुजस संसार हरिहर को जैसो ।
पद- 137
जौ पै कृपा रघुपति कृपालुकी बैर और के कहा सरै ।
होई न बॉकों बार भक्तप को जो कोउ कोटि उपाय करै ।। 1 ।।
सोधौं कहा जो न कियो सुयोधन अबुध आपने मान जरै ।
प्रभुप्रसाद सौभाग्य विजय जस पांडवतनै बरिआई बरै ।। 4 ।।
हैं काके द्वै सीस ईस के जो हठि जनकी सीवं चरै ।
तुलसिदास रघुबीर बाहुबल सदा अभय काहू न डरै ।। 5 ।।
-गोस्वामी ने दुर्योधन को जहाँ-तहाँ सुयोधन ही कहा है।
पद- 174
जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही ।। 1 ।।
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभिषन बंधु, भरत महतारी ।
बलि गरु तज्योो कंत ब्रजब,नितनि भये सब मंगलहारी ।। 2 ।।
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं ।
अंजल कहा आंख जेहि फूटे बहुतक कहौं कहाँ लौं ।। 3 ।।
तुलसी सो सब भाँति परमहित, पूज्यं प्रान ते प्यारो ।
जासों होइ सनेह रामपद एतो मतो हमारो ।। 4 ।।
पद- 214
ऐसी कवन प्रभुकी रीति ।
बिरद हेतु पुनीत परिहरि पांवरनि पर प्रीति ।। 1 ।।
गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाइ ।
मातुकी गति दई ताहि कृपालु जादवराई ।। 2 ।।
काममोहितगोपिकन्हि पर कृपा अतुलित कीन्हत ।
जगतपिता बिरंचि जिन्ह के चरन की रज लीन्ह ।। 3 ।।
नेमते सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि ।
कियो लीन सु आपुमें हरि राजसभा मझारि ।। 4 ।।
व्याध चित दै चरन मारयो मूढ़-मति मृग जानि ।
सो सदेह स्वयलोक पठयो प्रगट करि निज बानि ।। 5 ।।
कौन तिन्हसकी कहे जिन्ह के सुकृत अरु अघ दोउ ।
प्रकट पातक रुप तुलसी सरन राख्यो् सोउ ।। 6 ।।
पूज्यपाद तुलसीदासजी अपने को उनकी शरण में रखा जाना कहते हैं जिनके चरित उन्होंने इस पद में कहे हैं और यह जगत- प्रसिद्ध है कि वे श्रीरघुनाथजी के अनन्य उपासक थे- यह बात उनकी सब रचनाओं से निश्चित है। पर इस पद में जो चरित हैं वे श्रीकृष्णावतारके हैं। फिर उनकी शरण होना कैसे कहा? समाधान यह है कि वे ‘राम’‘कृष्ण’में अभेद सिद्ध करते हैं। वे तो ‘सियाराममय सब जग’को जानते हैं और ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत’हैं। वे सब अवतारों को अपने ही प्रभु का अवतार मानते हैं।
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