श्रीकृष्णांक
श्रीराम-कृष्ण का ऐक्य
जिसके किचिंत क्रोधयुक्त उत्कट कटाक्ष से समुद्र ने अपने नक्र और तिमिंगिलों के क्षुभित होने से अत्यंत घबड़ाकर रास्ता बता दिया था,जिसने समुद्र के बतलाने पर उप पर सेतु बांधा और अपने यश से लंका को प्रज्जवलित किया एवं जिनके बाणों से कटे हुए राक्षसों के सिर पृथ्वी पर गिरे, आप वही (भगवान रामचंद्र) हैं। इस प्रकार प्राप्त विज्ञान ॠतुराज से अच्युत भगवान देवकीनंदन कृष्णजी बोले। इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण एक ही हैं, अभेद हैं। जो त्रेता में श्रीराम थे वे ही द्वापर में श्रीकृष्ण हुए। पुरा महर्षय: सर्वे दण्डसकारण्य्वासिन: । उस समय भगवान ने उनको वचन दिया कि हम तुम्हारी अभिलाषा द्वापर में पूरी करेंगे। वही महर्षिवृन्द द्वापर में व्रजवनिताएं बने। यथा- ते सर्वे स्त्रीत्वामापन्नाग समुद्भूताच्श्र गोकुले । आनन्दरामायण और गर्गसंहिता में ऐसा भी उल्लेख है कि जनकपुर की स्त्रियों के हृदयों में भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम के दिव्य दशर्नों से जो कान्ताकार भाव का उदय हुआ था, उसकी पूर्ति के लिए श्रीरामचंद्रजी ने श्रीकृष्णावतार धारण किया। क्योंकि मर्यादा पुरुषोत्तम एक पत्नीव्रत रामजी यदि उनकी अभिलाषा उस अवतार में पूर्ण करते तो मर्यादा का उल्लंघन हो जाता। यथा- तं दृष्ट्राू मैथिला: सर्वा: पुरन्धययो मुमुहुर्विधे । इसी प्रकार आनन्दरामायण यह एवं और भी अनेक कथाएं हैं जिसे निर्विवाद सिद्ध है कि त्रेता में जो राम थे वे ही द्वापर में कृष्ण थे। दोनों में अभेद है। पुराणों में इसका भी संकेत है कि जन्मांतर में बालि ही वह व्याध हुआ, जिसने धोखे से भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल को अपने बाण का लक्ष्य बनाया और उसकी के बहाने से भगवान ने परमधामकी यात्रा की। इस प्रकार बालि ने दूसरे जन्म में अपना बदला चुका लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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