श्रीकृष्णांक
श्रीराम-कृष्ण का ऐक्य
उस समय सुधन्वाजी ने उनसे कहा- आप आज अपने सारथी कृष्ण को कहाँ छोड़ आये। उनको शीघ्र बुलाइये। स्मरण करते ही भगवान आये और अर्जुन के सारथी बने। सुधन्वा जी भीपरम भक्त थे। श्रीअर्जुनजी से कम न थे। फिर युद्ध होने लगा। ललकारे जाने पर अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि मैं अपने इस तीन बाणों से सुधन्वा का सिर काट गिराऊंगा और उधर उन्हीं भक्त वत्सल के बल पर सुधन्वा ने प्रतिज्ञा की कि मैं इन तीनों बाणों को काट डालूंगा। परस्पर विरुद्ध प्रतिज्ञाएं हुई- दोनों का छारभार भगवान के माथे है, दोनों अपने विश्वास में पक्के हैं। पहला बाण छोड़ा गया,सुधन्वा ने उसे काट डाला। दूसरा बाण भगवानकी आज्ञा से छोड़ा गया। उसकी भी वही दशा हुई, तब तो अर्जुन घबरा गये, उनका मुंह सूख गया, तब भगवान ने तीसरा बाण छोड़ने की आज्ञा देते हुए कहा कि- हम अपने रामावतार का पुण्य इस बाण के अर्पण करते हैं। प्रभु के इस वाक्य से यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि श्रीराम ही द्वापर में श्रीकृष्ण हुए। पूरी कथा कल्याण भाग ४ संख्या ३ पृष्ठ ६२६ में छप चुकी है, उसकी यहाँ जरुरत नहीं[1]। 2. सत्राजित के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण पर स्यमन्त कमणि की चोरी लगाये जाने पर जब भगवान पता लगाते हुए जामबवानजी के यहाँ पहुँचे और वहाँ उनकी कन्या जाम्बवती को मणि से खेलते हुए देखा तो उसके लेने की इच्छा जताई, उस समय जाम्बवान और श्रीकृष्ण में २७ दिन रात युद्ध हुआ। और अन्त में भगवान के महाघोर मुष्टि प्रहारों से शिथिल हो जाने पर जाम्बवान विस्मित हुए और उन्होंने सोचा कि इतने दिन लगातार हमसे घोर युद्ध करने वाला सिवा भगवान के दूसरा कोई नहीं हो सकता, त्रेतायुग में मेघनाद, रावणादि के भी दांत हमने खट्टे कर दिये थे। फिर भला, द्वापर में कोई मनुष्य हमसे इस प्रकार युद्ध करके हमको शिथिल कर दे, यह कब संभव है? तदन्तर ही उन्होंने तुरंत पहचान लिया कि ये तो हमारे इष्टदेव श्रीसीतापति ही हैं। यह बात श्रीमद्भा़0 स्कं १० अ0 ५६ से सिद्ध है- कृष्णीमुष्टिविनिष्पादतनिष्पिष्टांनगोरुबन्धनन: । अर्थातश्रीकृष्ण भगवान के बारम्बार मुष्टिप्रहार से जिनके अंग के बंधन पिस गये, बल पराक्रम क्षीण हो गया और शरीर पसीने से भींग गया, ऐसे ॠक्षराज अत्यन्त विस्मित होकर भगवान से बोले-सर्व भूतों के प्राण, ओज और बल आप ही हैं- यह मैं जानता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सुधन्वाजी की कथा गीताप्रेस से प्रकाशित ‘भक्त बालक’ नामक पुस्तक छपी है, जिन्हें चाहिये, गीताप्रेस को पत्र लिखकर मंगवा सकते हैं।
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