श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण स्वयं भगवान थे
ब्रह्मसंहिता में भी कहा गया है- 5।48
‘जिस गर्भोदशायी पुरुष के एक निःश्वास काल का अवलम्बन करके लोमकूपसम्भूत जगत के ईश्वर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र अपने-अपने अधिकार में प्रवृत रहते हैं, वे गर्भोदशायी पुरुष महाविष्णु भी जिसकी एक कला है, मैं उन गोविन्द को भजता हूँ।’ श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीमुख से भी यही कहा है कि- विष्टभ्यामिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् । 10।42
मत्त: परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय । 7।7
इत्यादि वाक्यों द्वारा भी वे यही सिद्ध करते हैं। अच्छा, यह तो ठीक, किन्तु मद्भागवत में नारदजी के प्रति ब्रह्माजी का यह भी वाक्य है- भूमे: सुरेतवरूथविमर्दिताया: श्रीमद्भा. 2।7।26
श्रीविष्णुपुराण का भी वाक्य है- इत्यादि वाक्यों में श्रीबलभद्रजी और श्रीकृष्ण के विषय में क्षीराब्धिनाथ- आदि पुरुषावतार के केशरूप अंशावतार की कल्पना की जाती है, यदि अवस्थासूचक माना जाय तो इस वाक्य से प्रत्यक्ष विरोध आ जाता है, भगवान तो अविकारी हैं। अंशवतार की कल्पना की जाय तो इस वाक्य से प्रत्यक्ष विरोध है। अतएव इसका प्रयोग श्वेित और श्याम-वर्ण की शोभा के लिये किया गया है। पूज्यपाद श्रीधर स्वामी आदि प्रसिद्ध टीकाकारों ने यही अर्थ स्वीकार किया है और विष्णुपुराण के वाक्य का अभिप्राय भी यही है कि पृथ्वी भार उतारना यह कार्य है ही पर्याप्त हैं। यही सूचित करने के लिये केशोत्पाटन है। मद्भागवत के व्याख्या कार विश्वनाथ चक्रवर्ती ने सितकृष्णकेश: का श्लोषार्थ दूसरा अर्थ भी किया है को अर्थात सितो-ब्रह्मा, कृष्णो-विष्णु और रुद्र के अधीश। श्रीरूप गोस्वामी जीने इसका अर्थ किया है 'कलयाचातुर्येण, सिता निबद्धा:, कृष्णा:-अतिश्यामा: केशा येन इति रसिकशिखावतंसत्त्वव्यंजनात् कृष्णत्वं प्राप्यते।'अर्थात कलाचातुरी से बाँधे हुए श्याम केश जिन के। अथवा 'य: सितकृष्णकेश: क्षीराब्धिशय: सोअपि यत्कलयैव भवति स कृष्णो जात: सन् कर्माणि करिष्यति।'अर्थात जो सितकृष्ण केश क्षीराब्धिशायी हैं, वे भी जिस श्रीकृष्ण की कला हैं। ‘केश’ शब्द का अर्थ ‘अंशु’ भी है, अर्जुन के प्रति श्रीकृष्ण का वाक्य है- अंशवो ये प्रकाशंते मम ते केशसंज्ञिता: । महा. शा. 341।40
इसी प्रकार पुराणों में और भी परस्पर विरोधी वाक्य मिलते हैं। जैसे स्कन्दपुराण का वाक्य है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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