श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण स्वयं भगवान थे
किन्तु श्रीकृष्ण भगवान के अनन्य भक्तों को क्षीरोदशायी नारायण का श्रीकृष्णावतार में प्रादुर्भूत होना स्वीकार नहीं, अतएव वे ‘कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्‘ इस वाक्य द्वारा श्रीनारायण को भी श्रीकृष्ण का अंश प्रतिपादित करते हैं और उपर्युक्त करते हैं कि यद्यपि पृथ्वी का करूण करूण क्रन्दन सुनकर ब्रह्माजी ने क्षीरसागर पर जाकर भगवान श्रीनारायण की स्तुति अवश्य की और जिस आकाशवाणी को उन्होंने ध्यानावस्था में श्रवण किया। वह आकाशवाणी भी श्रीनारायण ही है, किन्तु उस आकाशवाणी द्वारा नारायण स्वयं वसुदेवजी के घर में प्रादुर्भूत होने के लिये नहीं कहते हैं और न उस आकाशवाणी का अभिप्राय ही ब्रह्माजी अपनी तरफ से देवगणों को सुनाते हैं किन्तु वे कहते हैं- गां पारुषीं मे श्रृणुतामरा: पुन- श्रीमद्भा. 10।1।21
अर्थात ब्रह्माजी पुरुष भगवान की की हुई 'वसुदेवगृहे साक्षाद्भगवान् पुरुष: पर:।' इस वाणी को भगवान के वाक्य को ही अक्षरशः देवगणों को सुनाते हैं। अभिप्राय यह है कि ब्रह्माजी से पुरुष भगवान ही यह वाणी कही है कि ‘वसुदेव के घर में साक्षात परम पुरुष भगवान प्रादुर्भूत होंगे- न कि मैं नारायण।’ यदि नारायण स्वयं ही श्रीकृष्णावतार में प्रादुर्भूत होने के लिये कहते कि ‘मैं स्वयं वसुदेव के घर में प्रादुर्भुत होऊँगा।’ अतएव इसके द्वारा नारायण ही श्रीकृष्ण के अंशावतार सिद्ध होते हैं- न कि नारायण ही श्रीकृष्ण। निष्कर्ष यह कि अन्य अवतारों के उद्गम स्थान जो नारायण हैं वे भी श्रीकृष्ण के अंशवतार हैं और जिनके अंशावतार नारायण हैं वे ही पुरुषोत्तम भगवान स्वयं श्रीकृष्ण वसुदेवजी के घर में प्रादुर्भुत हुए इसकी पुष्टि में वे श्रीमद्धावत के अन्त वाक्य भी उपस्थित करते हैं। यथा देवकीजी ने श्रीकृष्ण की स्तुति में कहा है- यस्यांशांशांशभगेन विश्वोत्पत्तिलयोदया: । 10।85।31
हे आद्य ! जिस (आप) के अंश (पुरुषावतार) का अंश (प्रकृति) है उसके अंश (सत्तवादिगुण) के भाग (परमाणु आदि) द्वारा इस विश्व की सृष्टि, स्थिति और प्रलय हुआ करती है। हे विश्वत्मन् ! उसी आपकी शरण में मैं हूँ। ब्रह्म-स्तुति में भी कहा गया है- नारायणस्त्वं न हि अर्वदेहिना श्रीमद्भा. 10।14।14
‘हे अधिश’ क्या आप नारायण नहीं हैं ? आप अवश्य ही नारायण हैं, क्योंकि आप ही सब जीव समूहों के आत्मा और अखिल लोकसाक्षी हैं, यद्यपि- आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनव:। तस्य ता अयनं पूर्वं तेन नारायण: स्मृत:'इस स्मृति वाक्य में जलशायी नारायण भी तो आप ही के अंग हैं। ‘इसमें कारणार्णवशायी भगवान नारायण श्रीकृष्ण के अंग अर्थात अंश कहे गये हैं।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |