श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
श्रीनन्द और श्रीयशोदा को पूर्जजन्म के वरदान के अनुसार अपनी बाललीला के आनन्द का दान करने के लिये प्रभु अपने बह्मधर्म एवं ब्रह्म सामर्थ्य को अत्यन्त छिपाकर रखते थे तथापि उनका नित्य सहयोग होने से कभी-कभी मृत्तिकाभक्षण, यमलार्जुन-भंग, शकटभंजन- प्रभृति लीलाओं के समय वे धर्म और वह सामर्थ्य अपने-आप प्रकट भी हो जाते थे, इसलिये स्पष्ट हो जाता है कि श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म पुरुषोत्तम का आविर्भाव है। वास्तव में तो प्रकृति-शब्द के रूढ़ अर्थ का यह तात्पर्य है कि जैसे अग्रि का स्वभाव है कि हर एक वस्तु में प्रवेश करके उस उसका प्राकृतरूप हटाकर अपना स्वरूप दान कर देना, इसी प्रकार भगवान पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भी हर एक को उसमें प्राकृतत्व दूर कर अपना स्वरूप दान करने के लिये ही लोक में प्रकट हुए हैं। लीला, स्वरूप और नाम तीनों के द्वारा अपने आनन्द स्वरूप को भक्तों में प्रवेश कराकर उन्हें आनन्दमय कर देना और इस तरह उनका उद्धार कर देना, यह उनकी प्रकृति (स्वभाव) है, इसलिये श्लोक के तीसरे पाद में स्वयं आज्ञा करते हैं कि ʻमैं ʻस्वाम्ʼ अपनी, प्रकृति (स्वभाव)- को स्वीकार करके, ʻसंभवामिʼ प्रकट होता हूँ।ʼ यौगिक अर्थ का तात्पर्य यही है। ʻप्रकृष्टा सर्वोत्तमा सर्वाश्रचर्यकरीति यावत्, या कृति: करणं लीलेतियावत् सा प्रकृति: ʼ अर्थात अन्य किसी मनुष्यादि किंवा देवतान्तर से भी न हो सके ऐसी सर्वाश्रचर्यकारी जो उत्तम लीला है, उसक प्रकृति को स्वीकार करके मैं प्रकट होता हूँ। केवल अपने स्वरूप-बल से ही सर्व जगत को अपने स्वरूप का दान करके उद्धार कर देना यही श्रीकृष्ण की प्रकृष्टा कृत- सर्वाश्चकरी सर्वोत्तम लीला है और यही उनका स्वकीयभाव (स्वभाव) धर्म और सामर्थ्य है। अग्नि अपने दाख तृण किंवा पत्थर-प्रभृति किसी भी पदार्थ के साधनों की किचन्मात्र भी भी अपेक्षा न रखकर अपने स्वरूप से ही उन-उन पदार्थों को उनका अन्य स्वरूप दूरकर अपना स्वरूप दे देता है, यह उसका सहज स्वभाव है। इसी प्रकार श्रीकृष्ण भी अपने साथ किसी तरह का भी सम्बन्ध करने वाले जन को उसके साधनों की किंचन्मात्र भी परवा न करके अपने ही स्वरूप-सामर्थ्य से उनका अन्यथा रूप (प्राकृत) दूर कर अपने अलौकिक और आनन्दमय स्वरूप को उनमें प्रवेश कराकर उनको आनन्दमय बना देते हैं, अर्थात उनका उद्धार कर देते हैं, यह उनकी प्रकृति—स्वभाव है। ʻउस प्रकृति को स्वीकार करके मैं प्रकट होता हूँʼ यह कहकर श्रीकृष्ण अपने-आपको परब्रह्म का आविर्भाव कह रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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