श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
ʻमुक्तिर्हित्वाऽन्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति:।ʼ इस समाधि भाषा के अनुसार भगवान जीव का अन्यथारूप छुड़ाकर और अपने स्वरूप का दान करके उसे भी स्वरूपस्थित कर देते हैं। यही जीव का उद्धार है और यही मुक्ति है। जैसे भगवान सच्चिदानन्द हैं वैसे जीव भी वास्तव में सच्चिदानन्द का अंश होने से सच्चिदानन्द ही है, किन्तु भगवदिच्छा से उसके आनन्दांश का तिरोधान हो जाता है। आनन्दांश के तिरोधान होने से जीव में अनेक दोष भी आज जाते हैं। बस यही जीव का अन्यथा रूप (बन्ध) है। जिन-जिन जीवों को भगवान ने अनुग्रहमार्ग में स्वीकार किया है उन-उन जीवों को उनके साधनों की अपेक्षा न रखकर उन्हें साधन-निरपेक्ष मुक्तिदान करने के लिये ही लोक में परब्रह्म का प्रादुर्भाव या अवतार होता है। जब जिस जीव के ऊपर प्रभु का पूर्ण अनुग्रह होता है, जब आनन्द रूप भगवान प्रकट होकर उसको अपने स्वरूप बल से ही अपने किसी भी प्रकार के सम्बन्ध मात्र से स्वरूपदान करके अर्थात जीव के देहेन्द्रियान्त:करण-स्वरूपों में अपने आनन्द का स्थापन करके उसे अपने स्वरूप में स्थित कर लेते हैं। यही जीव की मुक्ति (अन्यथारूप) छोड़कर स्वरूपावस्थिति है, और इस तरह जीव को आनन्दमय कर देना यही प्रभु की प्रकृति- प्रकृष्टा कृति या स्वभाव है। इस प्रकृति को स्वीकार करके मैं प्रकट होता हूँ- ʻप्रकृतिं स्वामधिषठाय संभवामिʼ। बस, श्लोक में यह कहना है। ʻनृणां नि: श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो भुवि। भागवत के इस श्लोक में श्रीव्यास देव ने और उसकी सुबोधिनी में[1] श्रीवल्लभाचार्य ने भी जीवमात्र को निरपेक्ष मुक्तिदान करने के लिये ही भगवान का प्रादुर्भाव है— यह निरूपण किया है। अव्यय अप्रमेय निर्गुण गुण हेतु उसका लोक में प्रकट होना ही व्यर्थ हो जाता है। सर्वेश्रवर होने से स्वार्थ-प्राकट्य व्यर्थ है और वह अप्रमेय अविकृत होने से साधन नहीं हो सकता और निर्गुण होने से भजनीय भी नहीं हो सकता इसलिये परार्थ भी प्राकट्य नहीं हो सकता। अत: केवल साधन-निरेपेक्ष-मुक्तिदान के लिये ही वह प्रकट होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्राणिमात्रस्य मोक्षदानार्थमेव भगवान अभिव्यक्त:। अन्यथा न भवेत्। असाधारणप्रयोजनाभावात्। भूभारहरणादिकं च अन्यथापि भवति। प्रकारांतरेण तादृशस्य नाभिव्यक्ति: संभवतीति वक्तुं भगवंत विशिनष्टि भगवानित्यादि। आदौ भगवान सर्वैश्वर्यसम्पन्न अपराधीन कालकर्मस्वभावानां नियामक: सर्वनिरपेक्ष: किमर्थ्मागच्छेत्। किं च स्वार्थं गमनाभावेपि परार्थं स्यात्तदपि नास्तीन्याह अव्ययस्येत्यादि चतुर्भि: पदै:। अन्येषां कृतिसाध्यं वा यद्भवति तदुपयुज्यते, भगवांस्तु अव्ययत्वात अभिकृतत्त्वान न कृतिसाध्य: अप्रमेयत्वात ज्ञानसाध्योपि न्। देहादिभजन द्वारा भजनीयो भविष्यतीत्यपि न, यतो निर्गुण:। निर्गता गुणा यस्मात्। गुणेषु विद्यमानेष्वेवान्यस्य प्रतिपत्तिस्तत्र भवति।.......अत: स्वपरप्रयोजनाभावात यदि साधननिरपेक्षा मुक्ति न प्रयच्छेत तदा व्यक्ति: (प्रादुर्भाव:) प्रयोजनरहितैव स्यात्। सुबोधिनी (श्रीवल्लभाचार्य:)