श्रीकृष्णांक
मोक्ष-संन्यासिनी गोपियां
भगवान श्रीकृष्ण ने एक दिन एकान्त में प्यारे उद्धव जी से कहा था– ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिका: । ‘हे उद्धव ! गोपियों ने अपने मन और प्राण मेरे अर्पण कर दिये हैं, मेरे लिये अपने सारे शारीरिक सम्बन्धियों को और लोक सुख के साधनों को त्यागकर वे मुझ में ही अनुरक्त हो रही हैं, मैं ही उनके सुख और जीवन का कारण हूँ, गोकुल की उन स्त्रियों को मैं प्रिय से प्रिय हूँ, मेरे दूर रहने के कारण वे मेरा स्मरण करती हुई मेरे विरह में अत्यन्त ही विह्वल और विमोहित हो रही हैं। मेरे शीघ्र गोकुल लौटने के संदेश के भरोसे ही अपने आत्मा को मुझ में समर्पण कर देने वाली वे गोपियां बड़ी कठिनता से किसी प्रकार जीवन धारण कर रही हैं’। गोपियों का हृदय श्रीकृष्णमय हो गया था, वे खाते-पीते, सोते-जागते, चलते-फिरते, घर का काम-काज करते, सब समय एक श्रीकृष्ण को ही देखतीं और उनके गुणों का स्मरण कर-करके आंसू बहाया करती थीं । या दोहनेअवहनने मथनोपलेप- ‘जो गोपियां गौओं का दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आंगन लीपते समय, बालों को झुलाते समय, रोते हुए बच्चों को लोरी देते समय, घरों में झाडू देते समय प्रेमपूर्ण चित्त से आंखों में आंसू भरकर गद्गदवाणी से श्रीकृष्ण का गान किया करती हैं, उन श्रीकृष्ण में चित्त निवेशित करने वाली गोपरमणियों को धन्य है’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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