श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण और भागवत–धर्म
देखिये– राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् । इसी परम विद्यारूपी रहस्य को, भक्ति मार्गरूपी सहज साधन को सर्वजन को सुलभ करने के लिये भगवान ने गीतोक्त भक्तिमार्ग का प्रतिपादन किया है, और इस भक्तिरस का जैसा सुन्दर परिपाक इस गीता ग्रन्थ में हुआ है वैसा अन्य किसी भी प्राचीन दार्शनिक ग्रन्थ में नहीं। गीता की लोकप्रियता का यही सबसे बड़ा कारण है। यदि अन्य बहुत से प्राचीन दार्शनिक ग्रन्थों के समान गीता भी केवल ज्ञान प्रधान ग्रन्थ होता और इसमें कोरे अव्यक्त निर्गुण ब्रह्म की व्याख्या होती तो आज के समान वह सर्वजन प्रिय कदापि नहीं हो सकती थी। इसी से भगवान ने अपने सगुण व्यक्त स्वरूप को लक्ष्य करके स्थान-स्थान पर प्रथम पुरुष का प्रयोग किया है। हमारे इस उपर्युक्त कथन का यह आशय कदापि नहीं कि गीता में ज्ञान की महिमा कुछ घटाकर कही गयी है। यदि ऐसा होता तो ठौर-ठौर पर जो ज्ञानी की प्रशंसा की गयी है, वह नहीं मिलती। असल बात तो यह है कि इस प्रकार के ज्ञानी-महात्मा अत्यन्त दुर्लभ हैं जैसा कि भगवान ने कहा है– मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । हजारों मनुष्यों में कोई एक-आध ही इस ज्ञानमार्ग द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, और इस प्रयत्न करने वालों में भी एक-आध ही मुझको वास्तविक रूप में जान पाते हैं। फिर आगे चल कर कहा है– बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । सृष्टि के यावतीय पदार्थ वासुदेवमय हैं, उनसे भिन्न कुछ नहीं है, इस प्रकार का तत्वज्ञान अनेक जन्मों के बाद होता है। इसलिये ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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