श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण और भागवत–धर्म
श्रीकृष्ण ने संसारीजनों के जीवन-यापन का यह मार्ग अर्जुन से कुछ नया बतलाया हो सो बात नहीं। बहुत प्राचीन काल से ही यह भक्तियुक्त कर्मयोग इस देश में प्रचलित था जो उस समय नष्टप्राप्य हो रहा था, एतदर्थ उसके पुनरुद्धार की आवश्यकता थी और इसका पुनरुद्धार करने तथा लोगों को हृदयंगम कराने की क्षमता साक्षात भगवान के अतिरिक्त और अन्य किसमें हो सकती थी ? अतएव इसकी प्राचीन गुरु परम्परा बतलाते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं– एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: । अर्थात परम्परा से प्राप्त हुए इस धर्म को राजर्षियों ने जाना जो बहुत समय के बाद नष्ट हो गया। उसी उत्तम रहस्य को, पुरातन योग को मैंने आज तुझे इसलिये बतला दिया कि तू मेरा भक्त और सखा है। यहाँ ‘भक्त’ शब्द ध्यान देने योग्य है। भगवान ने इस रहस्य को प्रकट करने योग्य किसी दूसरे बड़े कर्मकाण्डी पण्डित या ज्ञानी को अधिकारी नहीं समझकर अपने मित्र अर्जुन को ही इसके योग्य पात्र समझा। क्यों ? इसलिये कि अर्जुन भक्त था। सच्चा भक्त, प्रकृत प्रेमी अपने भक्ति-भाजन, प्रेम-पात्र का अनन्य उपासक होने के कारण उसकी बातों को इदमित्थम् समझ लेता है, उसमें अपने बुद्धिबल का उपयोग नहीं करता। उसकी चेष्टाओं को बुद्धि से नहीं, अन्त:करण से प्रेरणा प्राप्त होती है। महाभारत के अन्तर्गत नारायणीयोपाख्यान में भागवत-धर्म का जो विवेचन किया गया है, वहाँ भी इस प्रसंग का उल्लेख किया गया है– एवमेष महान्धर्म: स ते पूर्वं नृपोत्तम । इससे मालूम होता है कि भक्ति और कर्मयोग का यह सम्मिश्रण बहुत प्राचीनकाल से प्रचलित था और भागवत धर्म के अन्तर्गत समझा जाता था। यही भागवत धर्म भगवान श्रीकृष्ण के समय में इस देश से लुप्तप्राय हो रहा था। इसी से भगवान ने स्वयं अपने श्रीमुख से उसकी महिमा का बखान करके उसे पुन: स्थापित करने का महान उद्योग किया। इस परम्परागत भागवत धर्म को ही भगवान ने सब विद्याओं और गोपनीय विषयों में श्रेष्ठ, उत्तम, पवित्र, प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाला, धर्मानुकूल और सहज से आचरण करने योग्य कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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