श्रीकृष्णांक
चक्रपाणि
हम बुद्ध-शासन की आर्य-शासन में गणना नहीं कर सकते। सामयिक आवश्यकतावश बुद्धदेव ने ऐसा उपदेश किया अवश्य था परन्तु उसका अभिप्राय यह कदापि न था कि यौद्धिक शक्ति को उठा दिया जाये। ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’ तो शास्त्र धारण करना ही होगा। पर वैयक्तिक स्वार्थ के लिये नहीं, एकदेशीय प्रलोभनार्थ नही, पापी पेट के लिये नहीं, सांसारिक विषय-भोग, आमोद-प्रमोद प्राप्त करने के लिये नहीं, राज्य-सुख भोग के लिये, अपने सिर पर मुकुट धारण करने लिये नहीं और न दूसरों का धन लूटकर अपना कोष भरने के लिये वरं ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’। बस, महाप्रभु के दिव्य करों में ऐसा ही चक्र है और हमें उनके चरण-चिह्नों पर चलने की आवश्यकता है। धर्म के नाम पर भी लोगों ने घोर रक्तपात किया है। अतएव धर्म का स्वरूप प्रकट करने की परमावश्यकता है। विश्वभर के लक्षणों से उत्तम और परिपूर्ण धर्म का लक्षण हमारे शास्त्रों में है – अर्थात जिससे मानव जाति प्राकृत जीवन और विकास को प्राप्त करते हुए मोक्ष को प्राप्त करे वही धर्म है। तब यदि हमारे जीवन विकास में हमारी पवित्र स्वतंत्रता में कुछ कारण बाधक हों तो हमें उनके विनाश करने में हिंसा कैसी ? जो कारण मानव जीवन का पतन कर उसको उसके ईश्वरत्व से वंचित रखें वे प्रकृतिविरुद्ध हैं, महाप्रभु की अखिल सृष्टि के सम्मुख वे अपराधी है। इस अपराध का दण्ड विधान करने के लिये ही चक्रपाणि का सुदर्शन-चक्र है। वास्तव में ब्राह्मण-शक्ति (सतोगुण) और क्षात्र-शक्ति (रजोगुण) इन दोनों का सम्मिश्रण ही किसी देश के लिये उत्थान का कारण है। समुचितरूपेण न केवल सत्वनिष्ठ पुरुष ही संसार का नियमन या शासन सुव्यवस्था कर सकते हैं और न राजसिक ही, हमें भारत के उन्नत काल में इन दोनों के समन्वय का ही दर्शन होता है, देश की सुव्यवस्था का और उसके उन्नति पथ का यह एक प्राकृतिक अटल सिद्धान्त है। इसके विरुद्ध यदि कोई देश के जीवनसूत्र को दृढ़ करना चाहे तो यह उसकी निरन्तर एक विचार पर की तल्लीनता और दृष्टिबद्धता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। भगवान ब्राह्मणशक्ति से परिपूर्ण हैं। वे परमशान्त सौम्य और दयासिन्धु हैं। वे भक्त की पीडा से द्रवित हो उठते हैं। पर उनके हाथों में सुदर्शन चक्र है और चक्र है भक्तभयहारी असुरदलसंहारी। भारतवर्ष की अधिक जनता जब धर्म-प्राण थी, धर्म-पिपासु थी, स्वतंत्रता की भक्त थीं, मुक्ति ही उसका उद्देश्य था तब वह भगवान चक्रपाणि की भक्त थी। भगवान चक्रधर ही एकमात्र इष्टदेव थे और भारत था सच्चा वैष्णव। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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