श्रीकृष्णांक
चक्रपाणि
वह हिंसा और अहिंसा का सच्चा स्वरूप जानता था। तभी तो भगवान ने अर्जुन को समक्ष कर मनुष्य समाज के लिये कहा था– परन्तु आज अधिकतर भारत सत्य इष्ट हीन है, उच्चादर्श रहित है। यह भगवान के सन्तापहारी चरण-कमलों से दूर है। सुदर्शन-चक्र के नाममात्र से उसका हृदय कांपता है, क्योंकि वह अशक्त और निर्बल है, नहीं-नहीं वीर्यहीन है और यह सब इसकी प्रभु-विमुखता क पाप का परिणाम है। नहीं तो वह चक्रपाणि की शरण में आने से क्यों डरता ? क्या प्रभुवर का यह वाक्य ‘अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:’। सुनकर भी भय अवशिष्ट रहता है। उफ ! भारत कैसा मृतक है, कैसा कायर है ! परन्तु हे भारत ! उठ, भगवान तुझे प्रबुद्ध कर रहे हैं ‘क्लैव्यं मा स्म गम !’ अरे ! नपुंसकता को छोड़ अपनी शक्ति को सँभाल ! शरण प्राप्त अर्जुन विश्वेश्वर चक्रपाणि के कालरूप का दर्शन कर रहा है – किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च उस किरीट, गदा और सुदर्शनचक्रधारी तेजपुंज परम अद्भुत चारों ओर से प्रकाशमान प्रचण्ड सूर्यप्रभ-सम कान्तिमान महाप्रभु का पुन: दर्शन करते हुए कहता है– रूप महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं प्रभो ! देख रहा हूँ विश्व की अखिल भुजाएं। उसके सब मुख, समस्त नेत्र, जंघा और पद तथा उदर आपके ही हैं। हे महाबाहो ! आपकी विकराल दाढों को देखकर (अर्थात आपके कालरूप से) समस्त लोक व्याकुल हो रहे हैं और मैं भी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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