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‘वस्त्र‘ शब्द का अभिप्राय अज्ञान हो सकता है। ‘वस्त्र’ शब्द ‘वस् आच्छादन ने’ धातु से बनता है, ‘वस् धातु आच्छानसूचक होने से जिस प्रकार वस्त्र आच्छादन का कार्य करता है उसी प्रकार अज्ञान आत्मा के शुद्ध स्वरूप का लक्ष्यार्थ अज्ञान लिया जा सकता है। आत्मा तो नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है, अज्ञान के कारण ही उसे अनित्य, अशुद्ध, अज्ञान और बद्ध कहलाना पड़ता है। उस अज्ञान को दूर किये बिना आत्मा को शुद्ध स्वरूप के ज्ञान की प्राप्ति, ब्रह्मात्मैक्यता और अपरोक्षानुभूति का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिये भगवान गोपीवस्त्रापहारक हैं, ऐसा कह सकते हैं, अत: भगवान भक्तों के वस्त्र–अज्ञान का हरण करने वाले हैं, यह सिद्ध होता है। भगवान के 108 नामों में यह एक सुप्रसिद्ध नाम है, जिसका उपर्युक्त रीति से अर्थ करने पर ‘चीर-हरण रहस्य’ स्पष्ट हो जाता है। यह तो नाम का अर्थ हुआ। अब श्रीमद्भावगत में इसका जो प्रसंग देखने में आता है, उस पर भी थोड़ा सा विचार करना है। व्रज-कुमारियां इच्छित वर की प्राप्ति के लिये कात्यायनी-व्रत करती हैं, आजकल भी ऐसा एक व्रत प्रचलित है। समस्त विश्व को मोहित करने वाले श्रीकृष्ण हमारे पति हो, उस समय तमाम व्रज-बालाओं की यही वासना थी।
व्रज-बालाओं की वृत्ति परमात्मा श्रीकृष्ण के प्रति इतनी अधिक लगी हुई थी कि व्रत के अन्त में देवी से वर मांगने के समय भी उन्होंने यही वर मांगा। व्रत के अन्त में सारी व्रज-कुमारियां कालिन्दी में स्नान को जाती हैं और वस्त्र बाहर उतारकर (नंगी ही) जल में प्रवेश करती हैं जो व्रत में विघ्न उत्पन्न करने वाला एक आचरण है। इस निषिद्ध आचरण का प्रायश्चित नहीं होगा तो व्रज-बालाओं का व्रत पूर्ण नहीं होगा। दयालु प्रभु तो सदा ही भक्तों के मार्गदर्शक होते हैं और समय-समय पर भक्तों के अज्ञान को दूर करना वे अपना काम समझते हैं। साक्षात श्रीदेवीस्वरूपा श्रीरुक्मिणजी के अन्त:करण में साधारण से गर्व की उत्पत्ति होते ही भगवान ने मर्मभेदी शब्दों का प्रयोग कर उनके गर्वाभास को दूर कर दिया था। यह प्रसंग श्रीमद्भागवत में प्रसिद्ध ही है। भगवान अपने सच्चे भक्त को तनिक भी विपथगामी होते देख येनकेनप्रकारेण उसे सत्य पथ पर आरूढ़ कराने की विविध युक्तियों से चेष्टा किया करते हैं, यहाँ भी अपनी अनन्य भक्त व्रजबालाओं को विपथगामी होते देख उन्हें तुरन्त ही वहाँ से हटाकर यथार्थ मार्ग पर चढ़ाने के लिये आप उसी क्षण यमुना तट पर जा पहुँचे। किनारे पर वस्त्र रख वस्त्रहीन हो स्नान करने वाली बालाओं की भूल सुधारने के लिये उन वस्त्रों को उठाकर श्रीकृष्ण वृक्ष पर चढ गये। इस समय वे अकेले नहीं, किन्तु अपने समान वय के गोप-बालाओं को साथ लेकर वहाँ गये थे।
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