श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
श्रीयशोदा के यहाँ मायासहित पुरुषोत्तम का प्रादुर्भाव है। अतएव द्विभुज-स्वरूप का ही प्रदर्शन है। जहाँ तक माया वहाँ रही, वहाँ तक किसी को भी भगवत्प्राकट्य का ज्ञान न हुआ। पुत्र हुआ कि पुत्री यह भी मालूम ने हो पाया ! किन्तु जब वासुदेव भगवान को भी वसुदेवजी ले आये और माया को वहाँ से गये, तभी भगवान का सबको दर्शन हुआ। श्रीपुरुषोत्तम का प्राकट्य तो देवकी और यशोदा दोनों के यहाँ हुआ है, किन्तु वसुदेव-देवकी को भगवान ने स्वयं पुत्र होने का वरदान किया था, अतएव उन्हें उस तरह व्यूह सहित दर्शन कराया और रीतिपूर्वक ʻअथ सर्वगुणोपेत:ʼ प्रद्युम्न- व्यूहद्वारा जन्म हुआ। इधर श्रीनन्द-यशोदा ने पूर्जजन्म मे ब्रह्मा से ʻजातयोनौ महादेवे भुवि विश्वेर हरौ। ʻभक्ति: स्यात्......ʼ इत्यादि वचनों से प्रभु में परमप्रीति होने का वरदान माँगा, न कि अपने पुत्र होने का, इसलिये श्रीपुरुषोत्तम उनके यहाँ प्रकट हुए पर न वैसी रीति से और न वैसे स्वरूप से, किन्तु माया से ढके हुए मायासहित, प्रद्युम्रद्वारा नहीं, किन्तु वासुदेव (अक्षरब्रह्म) द्वारा प्रकट हुए और इसीलिये गोकुल में उस प्रकार के स्वरूप का दर्शन भी न कराया और न कराने की आवश्यकता ही थी। केवल श्रीनन्—यशोदा को परम प्रीति देने का प्रयोजन था। वह परमप्रीति पुत्रबुद्धि होने से और बालक्रीड़ा देखने से होती है, अत: वे दोनों कार्य कर दिखाये। ʻनन्दस्वात्मज उत्पन्नेʼ यहाँ नन्द की बुद्धि का ही अनुवाद है। वास्तव में पुरुषोत्तम किसी के भी आत्मज नहीं। इसलिये शुकब्रह्म ने ʻततो भक्ति र्भगवति पुत्रीभूते जनार्दने, दम्पत्योर्नितरामासीत्.......ʼ यहाँ ʻपुत्रीभूतेʼ शब्द में ʻच्विʼ का प्रयोग किया है। और वसुदेवजी के यहाँ ʻजायमाने जनार्दनेʼ का प्रयोग किया है। अर्थात श्रीनन्द के यहाँ श्रीपुरुषोत्तम का प्राकट्य हुआ है पर वास्तव में पुत्ररूप से नहीं, किन्तु पुत्रभाव से और वसुदेवजी के यहाँ पुत्रभाव से नहीं किन्तु पुत्ररूप से प्राकट्य हुआ। सारांश यह कि पुरुषोत्तम का श्रीकृष्ण रूप और नाम से प्रादुर्भाव (अवतार) नन्दग्राम और मथुरा दोनों जगह हुआ, किन्तु श्रीनन्द के यहाँ माया सहित और वसुदेवजी के यहाँ चतुर्व्यूसहित। गोकुल में अप्रकट व्यूह का कार्य हुआ और मथुरा में व्यूहप्राकट्य भी हुआ और उनका कार्य भी हुआ। इस तरह यह श्रीकृष्णावतार के स्वरूप का संक्षिप्त निर्णय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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