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इसीलिये वे श्रुति के वचनों को उद्धृत कर कहते हैं कि– ‘परब्रह्म ने अपने को असत् समझा और बहुत होने की अभिलाषा की’। समझना, अभिलाषी होना कहने मात्र को है, क्योंकि लीला ही आनन्द का स्वभाव है और आनन्द ही लीला की आस्वाद्य है। मनुष्य आनन्द प्रणोदित होकर ही क्रीड़ा करता है और क्रीड़ा करके आनन्द का ही आस्वादन करता है। किसी प्रकार काअभाव प्रतीत होने पर उसकी पूर्ति के लिये स्वत: ही इच्छा होती है, पूर्णानन्द स्वरूप भगवान में किसी प्रकार का अभाव नहीं है इसलिये उनमें इच्छा भी नहीं है। वे अपने-आप ही प्रतिनियत निजानन्द का आस्वादन करते हैं, यही उनकी अप्राकृत नित्य लीला है और इस प्रकार के अप्राकृत प्रेमप्रधान भगवदंश ही शुद्ध जीव हैं अथवा भगवान की नित्य लीला के परिकर हैं। जैसे भगवान का श्रीविग्रह सच्चिदानन्दघन है वैसे ही इन शुद्ध जीवों का रूप भी सच्चिदानन्दघन है, परन्तु प्रेमप्रधान होने से वह प्रेममय और भगवान की आनन्दास्वादिनी शक्ति होने से प्रेममयी है।
शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि जितने प्रकार के प्रेमों से विमलानन्द का आस्वादन किया जाता है, भगवान श्रीकृष्ण निजानन्द परिस्फुटित करने के लिये अथवा विचित्र-भाव से आस्वादन करने के लिये, उन समस्त प्रकार के प्रेमों को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट करते हैं, फिर एक ही साथ एक ही रूप में समस्त प्रेमों को प्रकट करते हैं, सम्पूर्ण प्रकार के प्रेमों के एक ही समूह रूप नाम ही ‘राधा’ है। ईश्वरांश जीव को जैसे प्रेम से वशीभूत किया जा सकता है, वैसा अन्य उपाय से नहीं किया जा सकता। राशि का स्वभाव समझने के लिये अंश का स्वभाव समझना पड़ता है। यदि अग्निराशि का स्वभाव जानना है तो पहले अग्निकण का स्वभाव जानना होगा। अतएव सर्वजीवाधार आनन्दविग्रह जगदीश्वर श्रीकृष्ण भी प्रेमरूपिणी राधा के नितान्त वशीभूत और सर्वथा अनुगत हैं। श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण रह ही नहीं सकते।
जहाँ आनन्द है, वहीं प्रेम है और जहाँ प्रेम है, वहीं आनन्द है, आनन्द के बिना प्रेम नहीं होता और प्रेम बिना आनन्द नहीं रहता, आनन्द के घनीभूत विग्रह श्रीकृष्ण हैं। और प्रेम की घनीभूत मूर्ति श्रीराधा हैं। अतएव जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं राधा हैं और जहाँ श्रीराधा हैं वहीं श्रीकृष्ण हैं, कृष्ण बिना राधा अथवा राधा बिना कृष्ण रह ही नहीं सकते।
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