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<center>'''लेखक-गोस्वामी श्रीकृष्णजीवन जी ʻविशारदʼ बड़ा मन्दिर, बम्बई'''</center> | <center>'''लेखक-गोस्वामी श्रीकृष्णजीवन जी ʻविशारदʼ बड़ा मन्दिर, बम्बई'''</center> | ||
− | आस्तिकों के लिये न तो ईश्वर में उन्हें-सिद्धि की आवश्यकता है और न श्रीकृष्ण की ईश्वरता में उन्हें सन्देह है। श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में उनको यही सन्देह है कि वे अंशावतार हैं या पूर्णावतार हैं। क्योंकि कोई विद्वान यह कहते हैं कि नित्य और विशुद्ध चित का माया के सम्बन्ध बिना साकार होना असम्भव है, अतएव परब्रह्म का अवतार नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण, मायोपहित-शबल ब्रह्म का ही विशेष रूप हैं। अन्य विद्वानों का कथन यह है कि श्रीकृष्ण श्रीनारायण का अंशावतार है, क्योंकि अवतार शब्द ही इस बात को कहता है कि श्रीमदभागवत के ʻतत्रांशेनावतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस न: | + | आस्तिकों के लिये न तो ईश्वर में उन्हें-सिद्धि की आवश्यकता है और न श्रीकृष्ण की ईश्वरता में उन्हें सन्देह है। श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में उनको यही सन्देह है कि वे अंशावतार हैं या पूर्णावतार हैं। क्योंकि कोई विद्वान यह कहते हैं कि नित्य और विशुद्ध चित का माया के सम्बन्ध बिना साकार होना असम्भव है, अतएव परब्रह्म का अवतार नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण, मायोपहित-शबल ब्रह्म का ही विशेष रूप हैं। अन्य विद्वानों का कथन यह है कि श्रीकृष्ण श्रीनारायण का अंशावतार है, क्योंकि अवतार शब्द ही इस बात को कहता है कि श्रीमदभागवत के '''ʻतत्रांशेनावतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस न:ʼ''' इस श्लोक में अंश्पद के द्वारा अंशावतार स्फुट है। |
− | श्रीमद्वल्लभार्चचरणों का निर्णय इनमे कुछ भिन्न | + | श्रीमद्वल्लभार्चचरणों का निर्णय इनमे कुछ भिन्न है। ʻश्रुतेश्व शब्दमूलत्वात्ʼ इस सूत्र के भाष्य में आपने यह सिद्ध किया है कि उपनिषदैकगम्य परब्रह्म का निर्णय युक्तियों से न करके श्रुतियों से ही करना युक्त है। श्रुति दो प्रकार की उपलब्ध होती है। एक निर्धर्मक- ब्रह्म- प्रतिपादक, दूसरी सधर्मक- ब्रह्म- प्रतिपादक, इनकी प्रामाण्य–रक्षा के लिये इनमें से किसी का बाध नहीं कर सकते। अतएव पर ब्रह्म को ʻविरुद्धधर्माश्रयʼ मानना ही समुचित है और यह ठीक जँचता है। क्योंकि अनन्त शक्तिशाली पुरुष में विरुद्ध स्वीकार करने में कोई बाधा दृष्टिगोचर नहीं होती। ʻ'''तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्ʼ''' यह श्रुति भी कहती है कि परब्रह्म अपने आनन्दघन अप्राकृत विग्रह को भक्तजीवों के अक्षिगोचर कर सकते हैं, यदि यह बात है तो साकारता, श्रीकृष्ण की पूर्ण पुरुषोत्तमता में कभी बाधक नहीं हो सकती। |
− | श्रीकृष्ण, अंशावतार हैं या पूर्णावतार हैं, इस बात का निर्णय भी वेद, गीता और श्रीमदागवत में | + | श्रीकृष्ण, अंशावतार हैं या पूर्णावतार हैं, इस बात का निर्णय भी वेद, गीता और श्रीमदागवत में मौजूद है। |
<poem style="text-align:center;">'''कृषिर्भूवाचक: शब्दो णश्र निर्वृतिवाचक:।''' | <poem style="text-align:center;">'''कृषिर्भूवाचक: शब्दो णश्र निर्वृतिवाचक:।''' | ||
'''तयौरैक्यं परब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।।'''</poem> | '''तयौरैक्यं परब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।।'''</poem> | ||
− | यह श्रीगोपालतापिनी श्रुति, श्रीकृष्ण को परब्रह्म बताती है, गीता में स्वयं श्रीकृष्ण अपने श्रीमुख से आज्ञा | + | यह श्रीगोपालतापिनी श्रुति, श्रीकृष्ण को परब्रह्म बताती है, गीता में स्वयं [[श्रीकृष्ण]] अपने श्रीमुख से आज्ञा करते हैं— |
<poem style="text-align:center;">'''यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:।''' | <poem style="text-align:center;">'''यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:।''' | ||
'''अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।।'''</poem> | '''अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।।'''</poem> |
16:09, 30 मार्च 2018 का अवतरण
श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान्स्वयम
आस्तिकों के लिये न तो ईश्वर में उन्हें-सिद्धि की आवश्यकता है और न श्रीकृष्ण की ईश्वरता में उन्हें सन्देह है। श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में उनको यही सन्देह है कि वे अंशावतार हैं या पूर्णावतार हैं। क्योंकि कोई विद्वान यह कहते हैं कि नित्य और विशुद्ध चित का माया के सम्बन्ध बिना साकार होना असम्भव है, अतएव परब्रह्म का अवतार नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण, मायोपहित-शबल ब्रह्म का ही विशेष रूप हैं। अन्य विद्वानों का कथन यह है कि श्रीकृष्ण श्रीनारायण का अंशावतार है, क्योंकि अवतार शब्द ही इस बात को कहता है कि श्रीमदभागवत के ʻतत्रांशेनावतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस न:ʼ इस श्लोक में अंश्पद के द्वारा अंशावतार स्फुट है। श्रीमद्वल्लभार्चचरणों का निर्णय इनमे कुछ भिन्न है। ʻश्रुतेश्व शब्दमूलत्वात्ʼ इस सूत्र के भाष्य में आपने यह सिद्ध किया है कि उपनिषदैकगम्य परब्रह्म का निर्णय युक्तियों से न करके श्रुतियों से ही करना युक्त है। श्रुति दो प्रकार की उपलब्ध होती है। एक निर्धर्मक- ब्रह्म- प्रतिपादक, दूसरी सधर्मक- ब्रह्म- प्रतिपादक, इनकी प्रामाण्य–रक्षा के लिये इनमें से किसी का बाध नहीं कर सकते। अतएव पर ब्रह्म को ʻविरुद्धधर्माश्रयʼ मानना ही समुचित है और यह ठीक जँचता है। क्योंकि अनन्त शक्तिशाली पुरुष में विरुद्ध स्वीकार करने में कोई बाधा दृष्टिगोचर नहीं होती। ʻतस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्ʼ यह श्रुति भी कहती है कि परब्रह्म अपने आनन्दघन अप्राकृत विग्रह को भक्तजीवों के अक्षिगोचर कर सकते हैं, यदि यह बात है तो साकारता, श्रीकृष्ण की पूर्ण पुरुषोत्तमता में कभी बाधक नहीं हो सकती। श्रीकृष्ण, अंशावतार हैं या पूर्णावतार हैं, इस बात का निर्णय भी वेद, गीता और श्रीमदागवत में मौजूद है। कृषिर्भूवाचक: शब्दो णश्र निर्वृतिवाचक:। यह श्रीगोपालतापिनी श्रुति, श्रीकृष्ण को परब्रह्म बताती है, गीता में स्वयं श्रीकृष्ण अपने श्रीमुख से आज्ञा करते हैं— यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:। |