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− | स्कन्द पुराण में कहा गया है—<poem style="text-align:center;"> | + | '''व-''' [[श्रीकृष्ण]] की देह अप्राकृत थी, इसमें सन्देह ही क्या है? अप्राकृत देह का त्याग नहीं हो सकता, परन्तु उसके त्याग का भान होता है; वह भी लोक-दृष्टि में इन्द्रजालवत समझना चाहिये। स्कन्द पुराण में कहा गया है—<poem style="text-align:center;"> |
'''पृथ्वीलोकसन्त्यागो देहत्यागो हरे: स्मृत:।''' | '''पृथ्वीलोकसन्त्यागो देहत्यागो हरे: स्मृत:।''' | ||
− | '''नित्यानन्दस्वरूपत्वाद्न्यन्नैवोपलभ्यते | + | '''नित्यानन्दस्वरूपत्वाद्न्यन्नैवोपलभ्यते ॥''' |
'''दर्शयंजनमोहाय महशीं मृतकाकृतिम्।''' | '''दर्शयंजनमोहाय महशीं मृतकाकृतिम्।''' | ||
'''नटवद्भगवान् विष्णु: परक्तानाकृति: स्वयम्।।'''</poem> | '''नटवद्भगवान् विष्णु: परक्तानाकृति: स्वयम्।।'''</poem> | ||
− | अर्थात मर्त्यलोक-त्याग करने का का नाम ही भगवान का ʻदेह-त्यागʼ | + | अर्थात मर्त्यलोक-त्याग करने का का नाम ही भगवान का ʻदेह-त्यागʼ है- वस्तुत: भगवद्देह नित्यानन्दमय होने के कारण कभी त्यक्त नहीं हो सकती। जहाँ देह और देही पृथक होते हैं वहीं देह-त्याग की बात उठ सकती है, देह और देही अभिन्न होने पर त्याग कैसे हो सकता है? सुतरां श्रीकृष्ण ने तो वस्तुत: देह का त्याग ही किया था और न देह का ग्रहण ही किया था। हाँ, वे मायिक या प्राकृत देह ग्रहण कर सकते हैं- करते भी हैं और उसी का त्याग होता है। कारण, वह आगन्तुक होती है। |
− | ''' | + | '''जि-''' जो लोग श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन करते थे, वे सभी क्या उनके स्वरूप देह के दर्शन पाते थे ? ऐसा प्रतीत तो नहीं होता। क्योंकि ऐसा होता तो उनके र्इश्वरत्व सम्बन्ध में कोई भी सन्देह नहीं कर सकता। श्रीकृष्ण ने स्वयं ही कहा है— |
<poem style="text-align:center;">''''अवजानंति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।''''</poem> | <poem style="text-align:center;">''''अवजानंति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।''''</poem> | ||
मूढ़ लोग मुझको मनुष्य देहाश्रित समझकर मेरी अवज्ञा करते हैं।<br /> | मूढ़ लोग मुझको मनुष्य देहाश्रित समझकर मेरी अवज्ञा करते हैं।<br /> | ||
− | '''व—'''सब लोग श्रीकृष्ण ने नहीं पहचान सकते थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। जो ज्ञानी और भक्त थे, जिनकी अन्तर्दृष्टि पूर्णरूप से खुल गयी थी, वे ही उनकी भगवत्ता को समझ सकते | + | '''व—''' सब लोग [[श्रीकृष्ण]] ने नहीं पहचान सकते थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। जो ज्ञानी और भक्त थे, जिनकी अन्तर्दृष्टि पूर्णरूप से खुल गयी थी, वे ही उनकी भगवत्ता को समझ सकते थे- श्रीकृष्ण का स्वरूप उन्हीं के सामने प्रकट होता था। मूढ़ व्यक्ति उन्हें साधारण मनुष्य समझकर अवज्ञा करते थे। इसका कारण यही है कि जब तक दृष्टि के ऊपर से मोह का आवरण दूर नहीं होता अर्थात ज्ञानचक्षु उन्मीलित नहीं होते तब तक दिव्य देह दृष्टिगोचर नहीं होती। केवल श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ही नहीं; भगवत् साधर्म्य प्राप्त किसी भी महापुरुष के सम्बन्ध में यही बात जाननी चाहिए। |
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15:43, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
व- श्रीकृष्ण की देह अप्राकृत थी, इसमें सन्देह ही क्या है? अप्राकृत देह का त्याग नहीं हो सकता, परन्तु उसके त्याग का भान होता है; वह भी लोक-दृष्टि में इन्द्रजालवत समझना चाहिये। स्कन्द पुराण में कहा गया है— अर्थात मर्त्यलोक-त्याग करने का का नाम ही भगवान का ʻदेह-त्यागʼ है- वस्तुत: भगवद्देह नित्यानन्दमय होने के कारण कभी त्यक्त नहीं हो सकती। जहाँ देह और देही पृथक होते हैं वहीं देह-त्याग की बात उठ सकती है, देह और देही अभिन्न होने पर त्याग कैसे हो सकता है? सुतरां श्रीकृष्ण ने तो वस्तुत: देह का त्याग ही किया था और न देह का ग्रहण ही किया था। हाँ, वे मायिक या प्राकृत देह ग्रहण कर सकते हैं- करते भी हैं और उसी का त्याग होता है। कारण, वह आगन्तुक होती है। जि- जो लोग श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन करते थे, वे सभी क्या उनके स्वरूप देह के दर्शन पाते थे ? ऐसा प्रतीत तो नहीं होता। क्योंकि ऐसा होता तो उनके र्इश्वरत्व सम्बन्ध में कोई भी सन्देह नहीं कर सकता। श्रीकृष्ण ने स्वयं ही कहा है— 'अवजानंति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।' मूढ़ लोग मुझको मनुष्य देहाश्रित समझकर मेरी अवज्ञा करते हैं। |