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− | अन्तर्दृष्टि खुल जाने पर इस तत्त्व का पता लगेगा। वस्तुत: मन्त्र ही देवता का आकार है। यहाँ बिन्दु, नाद और कलातत्त्व की आलोचना नहीं करनी है, परन्तु इतना जान रखो कि बिन्दु जब विक्षुब्ध होकर नाद की सृष्टि करता है तभी उसी के साथ-साथ कला का विकास भी हुआ करता है। इसी के बाद की अवस्था में सावयव आकार की उत्पत्ति होती है। शुद्धचेतन, जो बिन्दु के अतीत अथवा बिन्दुश्लिष्ट होकर भी बिन्दु के द्वारा अस्पृष्ट है, उस समय साकार रूप में प्रतिभासित होता है। चिदाभासवश वह आकार उज्जवल होकर भासता है, और जगत में उसी को देवता कहते हैं। कहना नहीं होगा कि यह नाद की ही एक अवस्था है। परन्तु इस अवस्था में नाद ज्योतिरूप में स्थित है, यही विशेषता है। वैयाकरण लोग इसी को ‘पश्यन्तीवाणी’ कहा करते हैं। मन्त्र-सिद्धि अथवा देव-साक्षात्कार होने पर प्रकाश बहुल विशुद्ध सात्त्विक ‘पश्यन्तीवाणी’ का ही विकास हुआ करता है। | + | |
+ | '''व– '''देखो, शास्त्रों में कहीं भी वास्तविक विरोध नहीं है– हो भी नहीं सकता। मीमांसकों की दृष्टि में देवता मन्त्रमय हैं, वेदान्तियों की दृष्टि में देवता विग्रहवान् हैं, परन्तु दोनों में कोई भेद नहीं है। अन्तर्दृष्टि खुल जाने पर इस तत्त्व का पता लगेगा। वस्तुत: मन्त्र ही देवता का आकार है। यहाँ बिन्दु, नाद और कलातत्त्व की आलोचना नहीं करनी है, परन्तु इतना जान रखो कि बिन्दु जब विक्षुब्ध होकर नाद की सृष्टि करता है तभी उसी के साथ-साथ कला का विकास भी हुआ करता है। इसी के बाद की अवस्था में सावयव आकार की उत्पत्ति होती है। शुद्धचेतन, जो बिन्दु के अतीत अथवा बिन्दुश्लिष्ट होकर भी बिन्दु के द्वारा अस्पृष्ट है, उस समय साकार रूप में प्रतिभासित होता है। चिदाभासवश वह आकार उज्जवल होकर भासता है, और जगत में उसी को देवता कहते हैं। कहना नहीं होगा कि यह नाद की ही एक अवस्था है। परन्तु इस अवस्था में नाद ज्योतिरूप में स्थित है, यही विशेषता है। वैयाकरण लोग इसी को ‘पश्यन्तीवाणी’ कहा करते हैं। मन्त्र-सिद्धि अथवा देव-साक्षात्कार होने पर प्रकाश बहुल विशुद्ध सात्त्विक ‘पश्यन्तीवाणी’ का ही विकास हुआ करता है। | ||
शब्द और अर्थ वाक्य-वाच्यरूप में नित्य सम्बन्धित हैं, इसी से देवतातत्त्व में दोनों ही एकात्मभाव से स्थित रहते हैं। कभी मन्त्र रहस्य समझ सकोगे तो यह बात धारणा में आ सकेगी कि मीमांसा और वेदान्त के सिद्धान्त में वस्तुत: कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार साकार-निराकार के संबंध में भी समझना चाहिए।<br /> | शब्द और अर्थ वाक्य-वाच्यरूप में नित्य सम्बन्धित हैं, इसी से देवतातत्त्व में दोनों ही एकात्मभाव से स्थित रहते हैं। कभी मन्त्र रहस्य समझ सकोगे तो यह बात धारणा में आ सकेगी कि मीमांसा और वेदान्त के सिद्धान्त में वस्तुत: कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार साकार-निराकार के संबंध में भी समझना चाहिए।<br /> | ||
− | श्रीमद्भागवत<ref>1। 5। 68</ref>– में श्रीभगवान को ‘मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम्’ कहा गया है, इससे भी प्रतीत होता है कि मन्त्र उनकी मूर्ति है तथापि वे अमूर्त हैं, भगवान के मन्त्र या शब्द–ब्रह्ममय रूप का वर्णन भागवत के अन्य | + | श्रीमद्भागवत<ref>1। 5। 68</ref>– में श्रीभगवान को '''‘मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम्’''' कहा गया है, इससे भी प्रतीत होता है कि मन्त्र उनकी मूर्ति है तथापि वे अमूर्त हैं, भगवान के मन्त्र या शब्द–ब्रह्ममय रूप का वर्णन भागवत के अन्य स्थलों में भी स्पष्ट रूप से मिलता है। सिद्धावतार कपिलदेव के पिता प्रजापति कर्दम ॠषि के दीर्घकाल तपस्या करने पर भगवान प्रसन्न होकर उनके सामने शब्द-ब्रह्मात्मक रूप धारण करके आविर्भूत हुए थे। |
<poem style="text-align:center;">'''तावत्प्रसन्नो भगवांपुष्कराक्ष: कृते युगे।''' | <poem style="text-align:center;">'''तावत्प्रसन्नो भगवांपुष्कराक्ष: कृते युगे।''' | ||
'''दर्शयामास तं क्षत्त: शाब्दं ब्रह्म दधद्वपु:॥'''</poem> | '''दर्शयामास तं क्षत्त: शाब्दं ब्रह्म दधद्वपु:॥'''</poem> | ||
− | रामानुज-सम्प्रदाय उनको ‘पञ्चोपनिषत्तनु’ कहते हैं– इसका भी अभिप्राय यही है कि शब्द-ब्रह्ममय नाद ही भगवान का विग्रह है। वैष्णवाचार्यों जो विशुद्ध सत्त्व को भगवददेह माना है वह भी यही है। कारण, शैव और शाक्त-शास्त्रों में जिसको बिन्दु बतलाया गया है, वैष्णव भक्तों का शुद्ध सत्त्व उसके अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ नहीं है। अक्षरबिन्दु और क्षरबिन्दु-बिन्दु के ही अवस्थाभेद मात्र हैं, बिन्दु के क्षरण से ही वर्ण की उत्पत्ति होती है। साकार जगत इस वर्ण की रचना विशेष है। | + | रामानुज-सम्प्रदाय उनको '''‘पञ्चोपनिषत्तनु’''' कहते हैं– इसका भी अभिप्राय यही है कि शब्द-ब्रह्ममय नाद ही भगवान का विग्रह है। वैष्णवाचार्यों जो विशुद्ध सत्त्व को भगवददेह माना है वह भी यही है। कारण, शैव और शाक्त-शास्त्रों में जिसको बिन्दु बतलाया गया है, वैष्णव भक्तों का शुद्ध सत्त्व उसके अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ नहीं है। अक्षरबिन्दु और क्षरबिन्दु-बिन्दु के ही अवस्थाभेद मात्र हैं, बिन्दु के क्षरण से ही वर्ण की उत्पत्ति होती है। साकार जगत इस वर्ण की रचना विशेष है। बिन्दु तत्त्व के साथ कुण्डलिनी-तत्त्व का घनिष्ट संबंध है। सम्भवत: तुम जानते होंगे कि जागृत कुण्डलिनी से ही देवता का आविर्भाव होता है। |
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15:02, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
व– देखो, शास्त्रों में कहीं भी वास्तविक विरोध नहीं है– हो भी नहीं सकता। मीमांसकों की दृष्टि में देवता मन्त्रमय हैं, वेदान्तियों की दृष्टि में देवता विग्रहवान् हैं, परन्तु दोनों में कोई भेद नहीं है। अन्तर्दृष्टि खुल जाने पर इस तत्त्व का पता लगेगा। वस्तुत: मन्त्र ही देवता का आकार है। यहाँ बिन्दु, नाद और कलातत्त्व की आलोचना नहीं करनी है, परन्तु इतना जान रखो कि बिन्दु जब विक्षुब्ध होकर नाद की सृष्टि करता है तभी उसी के साथ-साथ कला का विकास भी हुआ करता है। इसी के बाद की अवस्था में सावयव आकार की उत्पत्ति होती है। शुद्धचेतन, जो बिन्दु के अतीत अथवा बिन्दुश्लिष्ट होकर भी बिन्दु के द्वारा अस्पृष्ट है, उस समय साकार रूप में प्रतिभासित होता है। चिदाभासवश वह आकार उज्जवल होकर भासता है, और जगत में उसी को देवता कहते हैं। कहना नहीं होगा कि यह नाद की ही एक अवस्था है। परन्तु इस अवस्था में नाद ज्योतिरूप में स्थित है, यही विशेषता है। वैयाकरण लोग इसी को ‘पश्यन्तीवाणी’ कहा करते हैं। मन्त्र-सिद्धि अथवा देव-साक्षात्कार होने पर प्रकाश बहुल विशुद्ध सात्त्विक ‘पश्यन्तीवाणी’ का ही विकास हुआ करता है। शब्द और अर्थ वाक्य-वाच्यरूप में नित्य सम्बन्धित हैं, इसी से देवतातत्त्व में दोनों ही एकात्मभाव से स्थित रहते हैं। कभी मन्त्र रहस्य समझ सकोगे तो यह बात धारणा में आ सकेगी कि मीमांसा और वेदान्त के सिद्धान्त में वस्तुत: कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार साकार-निराकार के संबंध में भी समझना चाहिए। तावत्प्रसन्नो भगवांपुष्कराक्ष: कृते युगे। रामानुज-सम्प्रदाय उनको ‘पञ्चोपनिषत्तनु’ कहते हैं– इसका भी अभिप्राय यही है कि शब्द-ब्रह्ममय नाद ही भगवान का विग्रह है। वैष्णवाचार्यों जो विशुद्ध सत्त्व को भगवददेह माना है वह भी यही है। कारण, शैव और शाक्त-शास्त्रों में जिसको बिन्दु बतलाया गया है, वैष्णव भक्तों का शुद्ध सत्त्व उसके अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ नहीं है। अक्षरबिन्दु और क्षरबिन्दु-बिन्दु के ही अवस्थाभेद मात्र हैं, बिन्दु के क्षरण से ही वर्ण की उत्पत्ति होती है। साकार जगत इस वर्ण की रचना विशेष है। बिन्दु तत्त्व के साथ कुण्डलिनी-तत्त्व का घनिष्ट संबंध है। सम्भवत: तुम जानते होंगे कि जागृत कुण्डलिनी से ही देवता का आविर्भाव होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1। 5। 68