श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
प्रश्न हो सकते हैं कि विन्दु-क्षोभ-जनित रूप क्या नित्यरूप हो सकता है? विन्दु का क्षोभ ही क्यों होता है और विन्दु-क्षोभ के पूर्व क्या रूप नहीं था? इन सब प्रश्नों का समाधान जानना आवश्यक है। विन्दु-क्षोभ-जनित रूप अवश्य ही नित्य रूप है– परन्तु उसकी भी आपेक्षिक नित्यता तो है ही। कल्पान्तस्थायी रूप को भी एक प्रकार से नित्य कहा जा सकता है– पर वह भी वास्तविक नित्य नहीं है। कारण, प्रलयकाल में वह नहीं रहता। वस्तुत: उसकी उत्पत्ति है और विनाश भी है। सूक्ष्मभाव से निरीक्षण करने पर यह पता लगता है कि क्षोभ के पूर्व भी रूप था। यदि न होता तो क्षोभ ही न हो सकता और शुद्ध अवस्था में रूप का आर्विभाव होना भी सम्भव न होता। विन्दु-क्षोभ-जन्य अवयव-घटित रूप को तन्त्रशास्त्र में वैन्दवरूप कहा है। यह जगत के समस्त रूपों का मूल है। परन्तु सबका आदिरूप होने पर भी यह अनादिरूप नहीं है। जो रूप विन्दु से अतीत है, परव्योम से भी अतीत है, जो किसी अचिन्त्य कारण से विन्दु के साथ संश्लिष्ट होकर बिन्दु, कला और नादरूप में परिणत हो, वैन्दवरूप का आविर्भाव कराता है, वही अनादिरूप है– वही शाक्त और चिन्मय है। भगवत्-शक्ति चिन्मयी होने के कारण इस रूप को चिद्विग्रह भी कह सकते हैं। परन्तु यह जान रखना चाहिये कि अभिव्यक्त जगत की दृष्टि में यह अव्यक्त है, न इसका ध्यान हो सकता है और न वर्णन ही किया जा सकता है। शाक्तरूप अक्षुब्ध–बिन्दु के सान्निध्य में रहने पर स्वप्रकाशमय नित्यरूप का स्फुरण होता है। शाक्तरूप नित्य है, विन्दु भी नित्य है– अतएव उभय सान्निध्यनिमित्तक प्रकाशमय रूप भी नित्य हुए बिना नहीं रह सकता। जिन लोगों ने चिद्विलासमय परव्योम-तत्त्व की आलोचना की है, वे सहज ही में इस बात को समझ सकते हैं कि उपर्युक्त प्रकार से होना ही स्वाभाविक है। शक्ति और विन्दु में शक्ति चिदात्मिका है और विन्दु विशुद्ध सत्त्वमय, अतएव जड़ है– इस प्रकार समझने पर प्रणवात्मक, मन्त्रात्मक अथवा नादमय रूप को नित्य चैतन्योज्ज्वल शुद्ध जड़रूप ही करना पड़ता है। चैतन्यांश की ओर लक्ष्य करके उसे चिन्मय भी कहा जा सकता है। परन्तु याद रखो कि शाक्तरूप सर्वथा जड़त्वहीन है– वह नित्य और अव्यक्त है। परन्तु देवता और अधस्तन जगत का जो आकार है वह तो विन्दुक्षोभ से उत्पन्न कला द्वारा संकल्पवश गठित होने के कारण जड़ और अनित्य ही है। शास्त्रों में जहाँ-जहाँ ब्रह्मरूप को जो अभिव्यक्त शब्दमय कहा गया है वहाँ उक्त व्यञ्जना के अनुसार भगवान के ग्रहण किये हुए वैन्दव अथवा तज्जातीय ही किसी अन्य रूप को समझना चाहिये। स्वरूप को नहीं। परन्तु यदि पराशक्ति अथवा चैतन्य को भी शब्दब्रह्म समझकर ग्रहण करने की योग्यता आ जाये तो शाक्तरूप भी शब्दमय है, यह समझा जा सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |