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जो जीव भक्तिया प्रपत्ति का आश्रय लेकर चलते हैं वे मोक्ष पाते हैं। भक्ति साधन और साध्य-भेद से दो प्रकार की है। भक्त का उपाय भक्ति है और प्रपन्न का एकमात्र अवलम्बन स्वयं भगवान हैं, दोनों ही प्रकृति के पार विरजा को भेदकर सूक्ष्म–देह को त्याग अमानव कर स्पर्श के द्वारा अप्राकृत दिव्य विग्रह प्राप्त करते हैं और भगवद्धाम में प्रवेश लाभ करते हैं। मुक्त पुरुष स्वेच्छा से ही समस्त लोकों में सञ्चरण कर सकते हैं। अवश्य ही उनकी इच्छा भगवदिच्छा के अधीन होती है। जो जीव नित्य हैं उनके ज्ञान का संकोच कदापि नहीं होता। कारण, वे कभी भगवान के अप्रिय और विरुद्ध आचरण नहीं करते। अनादिकाल से ही उनके नाना प्रकार के अधिकार रहते हैं– इसका मूल भी भगवान की नित्य इच्छा ही है।<br /> | जो जीव भक्तिया प्रपत्ति का आश्रय लेकर चलते हैं वे मोक्ष पाते हैं। भक्ति साधन और साध्य-भेद से दो प्रकार की है। भक्त का उपाय भक्ति है और प्रपन्न का एकमात्र अवलम्बन स्वयं भगवान हैं, दोनों ही प्रकृति के पार विरजा को भेदकर सूक्ष्म–देह को त्याग अमानव कर स्पर्श के द्वारा अप्राकृत दिव्य विग्रह प्राप्त करते हैं और भगवद्धाम में प्रवेश लाभ करते हैं। मुक्त पुरुष स्वेच्छा से ही समस्त लोकों में सञ्चरण कर सकते हैं। अवश्य ही उनकी इच्छा भगवदिच्छा के अधीन होती है। जो जीव नित्य हैं उनके ज्ञान का संकोच कदापि नहीं होता। कारण, वे कभी भगवान के अप्रिय और विरुद्ध आचरण नहीं करते। अनादिकाल से ही उनके नाना प्रकार के अधिकार रहते हैं– इसका मूल भी भगवान की नित्य इच्छा ही है।<br /> | ||
'''जि–''' सुनते हैं, शास्त्रों में कहा है कि देवता मन्त्रात्मक हैं– उनके विग्रह नहीं है। कोई-कोई कहते हैं कि देवता की तरह भगवान के भी विग्रह नहीं हैं। इधर यह भी शास्त्रों के ही वाक्य हैं कि देवता के विग्रह हैं आपने भी यही कहा था। इन दोनों की संगति कैसे हो सकती है ?<br /> | '''जि–''' सुनते हैं, शास्त्रों में कहा है कि देवता मन्त्रात्मक हैं– उनके विग्रह नहीं है। कोई-कोई कहते हैं कि देवता की तरह भगवान के भी विग्रह नहीं हैं। इधर यह भी शास्त्रों के ही वाक्य हैं कि देवता के विग्रह हैं आपने भी यही कहा था। इन दोनों की संगति कैसे हो सकती है ?<br /> | ||
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14:54, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
जि– जीव का परमरूप भी क्या इसी प्रकार का है ? जो जीव भक्तिया प्रपत्ति का आश्रय लेकर चलते हैं वे मोक्ष पाते हैं। भक्ति साधन और साध्य-भेद से दो प्रकार की है। भक्त का उपाय भक्ति है और प्रपन्न का एकमात्र अवलम्बन स्वयं भगवान हैं, दोनों ही प्रकृति के पार विरजा को भेदकर सूक्ष्म–देह को त्याग अमानव कर स्पर्श के द्वारा अप्राकृत दिव्य विग्रह प्राप्त करते हैं और भगवद्धाम में प्रवेश लाभ करते हैं। मुक्त पुरुष स्वेच्छा से ही समस्त लोकों में सञ्चरण कर सकते हैं। अवश्य ही उनकी इच्छा भगवदिच्छा के अधीन होती है। जो जीव नित्य हैं उनके ज्ञान का संकोच कदापि नहीं होता। कारण, वे कभी भगवान के अप्रिय और विरुद्ध आचरण नहीं करते। अनादिकाल से ही उनके नाना प्रकार के अधिकार रहते हैं– इसका मूल भी भगवान की नित्य इच्छा ही है। |