श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
व– उनका चतुर्थ रूप अन्तर्यामी है। इस रूप से वे जीव के हृदय में प्रविष्ट होकर उसकी सब प्रकार की प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करते हैं। अन्तर्यामी दो प्रकार के होते हैं– एक भगवान अपने मंगलमय विग्रह के साथ जीव के सखारूप से उसके हृदय-कमल में विराजित रहते हैं। उद्देश्य है– उसकी रक्षा करना और उसके ध्येयरूप में साथ-साथ अवस्थित रहना। दूसरा, अन्तरात्मारूप से। ये जीव की सभी अवस्थाओं में– स्वर्ग, नरक यहाँ तक की गर्भावस्था में भी– उसके अन्तर में रहकर उसकी सत्ता की रक्षा और सहायता करते हैं। वे जीव का त्याग कदापि नहीं कर सकते, इसलिये उसके अन्तरात्मा रूप से अवस्थान करते हैं। इसके बाद भगवान का पाँचवाँ रूप है– अर्चावतार, अर्चाप्रतीक। यह पुरुष के आकार विशिष्ट वाला होता है। भगवान अनुग्रह करके अपने आश्रित भक्त जीव के अभिमतानुसार किसी भी द्रव्य को अपना विग्रह मानकर उसमें विराजने लगते हैं। इसमें देश-नियम नहीं हैं– अयोध्या, मथुरा आदि देश न होने पर भी हानि नहीं है। काल-नियम भी नहीं है, जब तक इच्छा हो तभी तक रह सकते हैं। अधिकारी का नियम भी नहीं है– दशरथ आदि की भाँति अधिकार विशिष्ट होने की आवश्यकता नहीं है। अवतार के रूप से भिन्न और विलक्षण है। अर्चक जिस किसी स्थान में और जिस किसी भी समय उनको प्राप्त करना चाहता है, वहीं, उसी समय वह प्राप्त कर सकता है। भगवान अर्चक के सभी अपराधों की उपेक्षा करते हैं। अर्चक जब जिस भाव से उनके स्नान, भोजन और शयनादि की व्यवस्था करता है, वे उसी को तदधीन-भाव से स्वीकार करते हैं। स्वभावत: भगवान प्रभु हैं, जीव उनका आश्रित दास है। परन्तु यहाँ अर्चावतार में इस संबंध में विपरीतता हो जाती है। भगवान अज्ञ, अशक्त, अस्वतन्त्रवत् होकर अपार करुणावश भक्त की सारी वाञ्छा पूर्ण करते हैं। उसे मोक्ष तक दे देते हैं, इस प्रकार वे सबके बन्धु और भक्त-वत्सल हैं। जि– मालूम होता है, पतित जीव की दृष्टि में इन पाँच प्रकार के रूपों में उत्तरोत्तर उत्कर्ष रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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