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− | स्वरुपावेश में भगवान अपने असाधारण विग्रह के साथ चेतन-शरीर में प्रविष्ट होते हैं– जैसे परशुराम। और यदि कार्यकाल में शक्तिमात्र का ही स्फुरण होता है तब वह शक्त्यावेश है– जैसे ब्रह्मा आदि। जो अवतार मुख्य और साक्षात होते हैं, उनके विग्रह दिव्य और अप्राकृत होते हैं, तथा स्वभाव अच्युत अर्थात अंशी के सदृश होता है। ये अवतार मुमुक्षुगणों के लिये उपास्य हैं। दीपक से जैसे | + | |
− | परन्तु जो गौण अवतार होते हैं वे मुमुक्षुओं के उपास्य नहीं होते। कारण, वे | + | '''व–''' भगवान के तीसरे रूप का नाम विभव है। उसे अनन्त होने पर भी मुख्य और गौण भेद से दो प्रकार का समझना चाहिये। भगवान का जो प्रादुर्भाव (भगवत्-रूप से) अन्य की भाँति होकर होता है वही विभव है। मुख्य विभव साक्षात अवतार है और गौण विभव आवेशावतार है। आवेश शक्ति का भी हो सकता है और स्वरूप का भी। स्वरुपावेश में भगवान अपने असाधारण विग्रह के साथ चेतन-शरीर में प्रविष्ट होते हैं– जैसे परशुराम। और यदि कार्यकाल में शक्तिमात्र का ही स्फुरण होता है तब वह शक्त्यावेश है– जैसे ब्रह्मा आदि। जो अवतार मुख्य और साक्षात होते हैं, उनके विग्रह दिव्य और अप्राकृत होते हैं, तथा स्वभाव अच्युत अर्थात अंशी के सदृश होता है। ये अवतार मुमुक्षुगणों के लिये उपास्य हैं। दीपक से जैसे समस्वभावविशिष्ट दीपकान्तर आविर्भूत होता है वैसे ही मुख्य अवतार जगत की रक्षा के लिये प्रकट हुआ करते हैं। इनमें किसी का मनुष्य के सदृश होता है तो किसी का पशु के समान और किसी का स्थावर के जैसा। इसमें केवल भगवदिच्छा ही कारण है और कोई भी कारण नहीं है, कर्मादि इसमें कारण नहीं हैं। |
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+ | परन्तु जो गौण अवतार होते हैं वे मुमुक्षुओं के उपास्य नहीं होते। कारण, वे स्वातन्त्र्यरूपी अहंकारयुक्त जीवों के अधिष्ठाता होते हैं। केवल भोगार्थी प्रवृक्तिमार्गी ही इनकी उपासना करते हैं। ये शक्त्यावेशावतार होते हैं। गौणावतारों में बहुत प्रकार के भेद हैं। | ||
'''जि–''' अवतार का मूल तो भगवान की इच्छा ही है।<br /> | '''जि–''' अवतार का मूल तो भगवान की इच्छा ही है।<br /> | ||
− | '''व–''' हाँ, वे स्वेच्छा ही नाना रूप धारण करते हैं, यही अवतार हैं। रूप धारण करके वे साधु-परित्राण, दुष्कृतों का विनाश और धर्म संस्थापन करते हैं। अवतार का कारण कर्म नहीं है। जो भृगुशाप आदि सुनने में आते हैं | + | '''व–''' हाँ, वे स्वेच्छा ही नाना रूप धारण करते हैं, यही अवतार हैं। रूप धारण करके वे साधु-परित्राण, दुष्कृतों का विनाश और धर्म संस्थापन करते हैं। अवतार का कारण कर्म नहीं है। जो भृगुशाप आदि सुनने में आते हैं वे छलमात्र हैं। वस्तुत: भगवान लीलावश इच्छा मात्र से ही अवतीर्ण होते हैं। कोई बाह्य कारण उनको अवतीर्ण होने के लिए विवश नहीं कर सकता।<br /> |
'''जि–''' भगवान का चतुर्थ रूप कैसा है? | '''जि–''' भगवान का चतुर्थ रूप कैसा है? | ||
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14:02, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
व– भगवान के तीसरे रूप का नाम विभव है। उसे अनन्त होने पर भी मुख्य और गौण भेद से दो प्रकार का समझना चाहिये। भगवान का जो प्रादुर्भाव (भगवत्-रूप से) अन्य की भाँति होकर होता है वही विभव है। मुख्य विभव साक्षात अवतार है और गौण विभव आवेशावतार है। आवेश शक्ति का भी हो सकता है और स्वरूप का भी। स्वरुपावेश में भगवान अपने असाधारण विग्रह के साथ चेतन-शरीर में प्रविष्ट होते हैं– जैसे परशुराम। और यदि कार्यकाल में शक्तिमात्र का ही स्फुरण होता है तब वह शक्त्यावेश है– जैसे ब्रह्मा आदि। जो अवतार मुख्य और साक्षात होते हैं, उनके विग्रह दिव्य और अप्राकृत होते हैं, तथा स्वभाव अच्युत अर्थात अंशी के सदृश होता है। ये अवतार मुमुक्षुगणों के लिये उपास्य हैं। दीपक से जैसे समस्वभावविशिष्ट दीपकान्तर आविर्भूत होता है वैसे ही मुख्य अवतार जगत की रक्षा के लिये प्रकट हुआ करते हैं। इनमें किसी का मनुष्य के सदृश होता है तो किसी का पशु के समान और किसी का स्थावर के जैसा। इसमें केवल भगवदिच्छा ही कारण है और कोई भी कारण नहीं है, कर्मादि इसमें कारण नहीं हैं। परन्तु जो गौण अवतार होते हैं वे मुमुक्षुओं के उपास्य नहीं होते। कारण, वे स्वातन्त्र्यरूपी अहंकारयुक्त जीवों के अधिष्ठाता होते हैं। केवल भोगार्थी प्रवृक्तिमार्गी ही इनकी उपासना करते हैं। ये शक्त्यावेशावतार होते हैं। गौणावतारों में बहुत प्रकार के भेद हैं। जि– अवतार का मूल तो भगवान की इच्छा ही है। |