|
‘नादब्रह्म - मोहन की मुरली’
‘निर्बीज-समाधिनिष्ठ परमहंसों की समाधि को हठात् तोड़ डालने वाली, सुधा के माधुर्य को फीका बना देने वाली, धैर्यवान् पुरुषों के धैर्य को तोड़कर उनकी अधीरता को उत्तेजित करने वाली, कामदेव पर विजयदुन्दुभि बजाकर उसको अपने शासन में रखने वाली भगवान श्रीकृष्ण की यह वंशी ध्वनि विश्व में सब ओर विजयिनी हो रही है।’
वृन्दावन निवासी चराचर जीवों का परम सौभाग्य था जो वे इस वंशी ध्वनि को सुनते थे और उन गोपीजनों के भाग्य की तो ब्रह्मादि देवतागण भी ईर्ष्या करते हैं, जिनका आवाहन करने के लिये मोहन स्वयं अपनी इस मधुर मुरली की मधुर तान छेड़ा करते थे। वे सुनती थीं और मुग्ध होती थीं; चेतना का विसर्जन कर देती थीं, परंतु सुनना कभी छोड़ती ही नहीं थीं। संध्या को गोधूलि के समय जब प्राणधन श्याम सुन्दर वन से लौटते थे, उस समय व्रज-बालाओं के झुंड-के-झुंड घरों से निकलकर रास्तों में उनकी प्रतीक्षा करते थे। एक दिन एक नवीन व्रजगोपी मुरलीध्वनि की प्रतिक्षा में घर के बाहर दरवाजे पर खड़ी थी; उसे देखकर, वंशी और वंशीधर की ;महिमा का व्याज से बखान करती हुई दूसरी महाभागा गोपी कहती है-
- सुनती हौ कहा, भजि, जाहु घरै, बिंध जाओगी नैन के बानन में।
- यह बंसी ‘निवाज’ भरी विष सौ बगरावति है विष प्रानन मैं।।
- अबहीं सुधि भूलिहौ भोरी भटू, भँवरौ जब मीठी-सी तानन मैं।
- कुलकानि जो आपनि राखि चहौ, दै रहौ अँगुरी दोउ कानन मैं।।
वंशीनाद से आकृष्ट गोपीजनों की प्रेमविहृल दशा का वर्णन भगवान वेदव्यास जी ने भागवत में बहुत ही सुन्दर रूप से किया है। भागवत का वेणुगीत प्रसिद्ध है। भावुक भक्तजन उसे अवश्य पढ़ें-सुनें।
|
|