श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सौन्दर्य-लालसामनकी सौन्दर्य-लालसा को दबाइये मत, उसे खूब बढ़ने दीजिये; परंतु उसे लगाने की चेष्टा कीजिये परम सुन्दरतम पदार्थ में। जो सौंन्दर्य का परम अपरिमित निधि है, जिस सौन्दर्य-समुद्र के एक नन्हें-से कण को पाकर प्रकृति अभिमान के मारे फूल रही है और नित्य नये-नये असंख्य रूप धर-धरकर प्रकट होती और विश्व को विमुग्ध करती रहती है- आकाश का अप्रतिम सौन्दर्य, शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु का सुख-स्पर्श-सौन्दर्य, अग्नि-जल-पृथ्वी का विचित्र सौन्दर्य, अनन्त विचित्र पुष्पों के विविध वर्ण और सौरभ का सौन्दर्य, विभिन्न पक्षियों के रंग-बिरंगे सुखकर स्वरूप और उनकी मधुर काकलीका सौन्दर्य, बालकों की हृदयहारिणी माधुरी, ललनाओं का ललित लावण्य तथा माता-पत्नि-मित्र आदि का मधुर स्नेह-सौन्दर्य- ये सभी एक साथ मिलकर भी जिस सौन्दर्य-सुधासागर के एक क्षुद्र सीकर की भी समता नहीं कर सकते, उस सौन्दर्यराशि को खोजिये। उसी के दर्शन की लालसा जगाइये, सारे अंगों में जगाइये। आपकी बुद्धि, आपका चित्त-मन, आपकी सारी इन्द्रियाँ, आपके शरीर के समस्त अंग-अवयव, आपका रोम-रोम उसके सुषमा-सौन्दर्य के लिये व्याकुल हो उठे। बस, यह कीजिये। फिर देखिये, आपकी सौन्दर्य-लालसा आपको किस चिन्मय दिव्य सौन्दर्य-साम्राज्य ले जाती है। अहा! यदि आपको एक बार उसकी जरा-सी झाँकी भी हो गयी तो आप निहाल हो जाइयेगा। फिर सौन्दर्य-लालसा मिटानी नहीं होगी। वह अमर हो जायगी और इतनी बढ़ेगी- इतनी बढ़ेगी कि मुक्ति सुख को भी खोकर स्वंय जीती-जागती बनी रहेगी और आप फिर उस सौन्दर्य-समुद्र में नित्य डूबते-उतराते रहेंगे। वह ऐसा सौन्दर्य है कि जिस दिन-रात अनन्त काल तक अविरत देखते रहने पर भी तृप्ति नहीं होती, दर्शन की प्यास कभी मिटती ही नहीं, ‘अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी’ ही बनी रहती हैं। प्यास के बुझने की तो कल्पना ही नहीं, वरं ईंधनयुक्त घृत की आहुति से बढ़ती हुई अग्नि की भाँति उत्तरोत्तर बढ़ती हुई वह अनन्त की ओर अग्रसर होती रहती है। पर यह प्यास-- यह दर्शन की बढ़ी हुई लालसा दर्शन से भी अधिक सुखदायिनी होती है। यह वह सौन्दर्य है, जिसे देखकर मुनियों के मरे हुए मनों में भी जीवन का संचार हो जाता है। श्रीवृषभानुनन्दिनी श्री श्रीराधिकाजी कहती हैं-
|
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज