श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवत्कृपा से ही भगवत्प्रेम की प्राप्तिसप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपा-पत्र प्राप्त हुआ। धन्यवाद। भगवान अथवा भगवान के प्रेम की प्राप्ति कोई करा दे-यह सम्भव नहीं। भगवान न तो किसी के वश में हैं और न तो भगवान किसी मूल्य पर मिलते ही हैं। दर्शन की अनन्य लालसा मन में उत्पन्न कीजिये और अत्यन्त आतुर हो जाइये अथवा दर्शन एकान्त लालसा को मनमें रखकर अपने को उनकी कृपा पर छोड़ दीजिये। वे जब उचित समझेंगे, तब अपने-आप ही अपना या अपने प्रेम का दान आप को कर देंगे। दुसरा कोई साधन नहीं। मैं तो सभी के लिये हृदय से चाहता हूँ कि सब लोग भगवान के अपने बनें और सब पर भगवान की कृपा हो। कृपा तो है ही, उसे पहचान लिया जाय। भगवान की कृपा दर्शन भगवद्दर्शन से भी अधिक महत्त्व रखता है। आप उनकी कृपा पर विश्वास करके बिना किसी शर्त के उनके हो जायँ तो सम्भव है, आपकी इच्छा (यदि वह सच्ची, अनन्य और तीव्र होगी तो) दूसरे किसी भी उपाय की अपेक्षा शीघ्र पूरी होगी। न किसी साधन से यह होगा, न किसी मनुष्य के किये होगा- यह होगा भगवत्कृपा से ही और भगवत्कृपा के दर्शन होंगे अनन्य विश्वास और उनके चरणों की शरणागति से ही। शेष भगवत्कृपा। प्रभु प्रेम का परमामृत एकमात्र प्रभु के कृपा कटाक्ष का ही प्रसाद है जिस परम सौभाग्यशाली जीव पर उनकी कृपा प्रकट होती है, उसी को यह अमृत प्राप्त होता है। उनकी कृपा उन्हीं के अधीन है। उसे किसी साधन द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। बल्कि जीव को जब तक अपने साधनों का भरोसा रहता है, तब तक तो वह अधिकतर दुःखी ही रहता है। उसे पाने का यदि कोई उपाय है तो यही कि जीव निरुपाय हो जाय। सारे साधनों का आश्रय छोड़कर एकमात्र कृपा की ही उपासना करे, कृपा की ही बाट जोहा करे। साधनों का आश्रय छोड़ने से यह अर्थ नहीं है कि अपने सत्पथ को छोड़कर कुपथ में चलने लगे। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है अपने सत्कर्में के मूल्य में प्रभु कृपा को पाने की आशा न रखे। सत्कर्म साधन के रूप में नहीं, स्वभाव से हों। साधन तो एकमात्र प्रभु की इच्छा का अनुवर्तन हो। वे जैसे रखें, उसी में संतुष्ट रहे और केवल प्रभु प्रेम की प्यास बढ़ाता रहे। इस प्यास की पीड़ा जितनी बढ़ेगी, उतनी ही प्रभु कृपा सुलभ होती जायगी। अतः प्रभु प्रेम ही प्रभु प्राप्ति का एकमात्र उपाय है प्रभु स्वयं कृपा करके ही किसी जीव को अपनाते हैं। वह कृपा प्रभु की इच्छा से कभी–कभी किसी भगवदीय के रूप में आती है। किंतु भक्त केवल यन्त्रवत् उसके प्रकट होना का निमित्तमात्र होता है; वास्तव में उसके द्वारा भगवान ही अपने शरणापन्न पर द्रवित होते हैं। |
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