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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकार‘कुसुमिका’ राग उसे कहते हैं, जो कुसुम्भ के फूल के रंग की तरह हृदय क्षेत्र को रँग देता है और मन्जिष्ठा और शिरीषादि दूसरे रागों को अभिव्यन्जित करके सुशोभित होता है। कुसुम्भ के फूल का रंग स्वयं पक्का नहीं होता, परंतु किसी दूसरी कषाय वस्तु को साथ मिला देने पर वह पक्का और चमकदार हो जाता है। वैसे ही यह राग भी श्रीकृष्ण के मधुर मोहन सौन्दर्यादि कषाय के द्वारा पक्का और चमकदार हो जाता है। ‘शिरीषा’ राग अल्पकालस्थायी होता है। जैसे नये खिले हुए शिरीष के पुष्प में पीली-सी आभा दिखायी देती है, परंतु कुछ ही समय मे वह नष्ट हो जाती है, वैसे ही यह राग भी भोगसुख के समय उत्पन्न होता है और वियोग में मुरझा जाता है। इसी से इसका नाम ‘शिरीषा’ है। जिनका जीवन श्रीकृष्ण-सुख के लिये है, उनकी रति ‘समर्था’ प्रेम ‘मधुवत्’ और राग ‘मन्जिष्ठा’ होता है। जिनका दोनों के सुख के लिये है, उनकी रति ‘समन्जसा’, प्रेम ‘घृतवत्’ और राग ‘कुसुमिका’ होता है; और जिनका प्रेम केवल निजेन्द्रियतृप्ति के लिये ही होता है, उनकी रति ‘साधारणी’, प्रेम ‘लाक्षावत्’ और राग ‘शिरीषा’ होता है। इनमें पहले भाव उत्तम, दूसरे मध्यम और तीसरे अधम हैं। प्रेम और ब्राह्मी स्थिति‘प्रेम’ की स्थिति में और ‘ब्राह्मी स्थिति’ में कोई अन्तर नहीं है। तथापि साधन में अन्तर होने के कारण विभिन्न अधिकारियों के लिये दोनों अलग-अलग समझे जाते हैं। प्रेमी भी सुध-बुध भूलता है और ज्ञानी भी। परंतु इस सुध-बुध भूलने का अर्थ शारीरिक बाह्यज्ञानशून्य अवस्था नहीं है। यह वह स्थिति है, जिसमें परमात्मा को छोड़कर ‘बाह्य’ और कुछ रहता ही नहीं। इसी प्रकार प्रेम भी ज्ञान की भाँति प्रेमास्पद या ब्रह्म की प्राप्ति के लिये ही आरम्भ किया जाता है। वह पहले अपने लिये होता है, फिर भगवान के लिये होता है और अन्त में अपने और भगवान के भेद का अभाव हो जाता है। निरतिशय आनन्दस्वरूप भगवान को कोई उद्देश्य नहीं है। प्रेमादि गुण स्वयं भगवान का आश्रय लेकर भक्तों को- प्रेमियों को सुख देते हैं- ‘निर्गुणं मां गुणगणा भजन्ते निरपेक्षकम्।’ |
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