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श्री गोपांगना
वन्दना
- बंदौ गोपी-जन-हृदय, जो हरि राखे गोय।
- पलकहुँ नहिं निकसत कबहुँ, माजि परम सुख सोय।।
- बंदौ गोपी-मन सरस, मिल्यौ जो हरि-मन जाय।
- हरि-मन गोपी मन बन्यौ करत नित्य मनभाय।।
- बंदौ गोपी-राग सुचि, जाके बस हरि होय।
- नित्य रिनी बनि परम सुख लहत, ईसता खोय।।
- बंदौ गोपी-नेह, जो हरि-पद-रज कौं सेय।
- भगवत-रूप प्रकास तैं बिन सै सब रन हेय।।
- बंदौ गोपी-भाव, जो नित प्रियतम-सुख हेतु।
- बढ़त पलहिं पल भंग करि सब मरजादा-सेतु।।
- बंदौ गोपी-ब्रत परम स्व-सुख-बासना हीन।
- सती परम, जिन मन सतत रहत सुसेवा लीन।।
- बंदौ गोपी-प्रनय, जो हरि आकरषत सत्य।
- आकरषत जो ध्यान मैं बरबस मुनि-मन नित्य।।
- बंदौ गोपी-नाम, जे हरि मुरली महँ टेर।
- सुख पावन हरि स्वयं करि कीर्तन बेरहिं बेर।।
- बंदौ गोपी-रूप, जो हरि-दृग रह्यौ समाय।
- निकसत नैकु न नयन तैं छिन-छिन अधिक लुभाय।।
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