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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेम और विकारगोविन्द-पदारविन्द-मकरन्द-मधुकर विषय-चम्पक-चच्चरीक होता ही है। बार-बार उस परम प्रेमार्णव-अनन्त प्रेम रस-सुधासमुद्र श्याम-सुन्दर का स्मरण करना और उसकी दिव्य पद-नख-ज्योति के प्रकाश से समस्त संचित मोहान्ध कारका नाश करने के निश्चय से प्रत्येक क्षण के प्रत्येक चिन्तन में अपार अलौकिक आनन्द का अनुभव करना (अनुभव न हो तो भावना करना) कर्तव्य है। उसके इस मधुर चिन्तन के प्रभाव से जगत के समस्त रस नीरस, कटु और त्याज्य हो जायँगे। तब उस रस-विग्रह की रश्मियाँ हमारे ऊपर पड़ेगी और हमारे सुप्त प्रेम को जगाकर हमें उसके दिव्य दर्शन करायेंगी। प्रेम मुँह की बात नहीं हैप्रिय महोदय! सप्रेम हरिस्मरण।........ किसी के व्याख्यान को सुनकर ही उसे प्रेमी मान लेने में बड़ा धोखा हो सकता है। प्रेम वाणी का विषय ही नहीं हैं। जितना प्रेम यथार्थ और शुद्ध होता है, उतना ही उसमें त्याग अधिक होता है। वस्तुतः त्याग ही प्रेम का आधार है। प्रेम में अपने शुद्ध स्वार्थ को, अपने व्यक्तिगत लाभ को और अपने को सर्वथा भूल जाना पड़ता है। प्रेम का प्रादुर्भाव होने पर ये अपने-आप ही भूल जाते हैं। प्रेम में प्रेमास्पद से कुछ भी पाने की आशा-आकांक्षा नहीं रहती। वहाँ तो बस, देना–ही–देना होता है–देह–प्राण–मन ले लो, धन–ऐश्वर्य–समद्धि ले लो, मान-यश-प्रतिष्ठा ले लो, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष ले लो; जो चाहो सो ले लो और इसे देने में ही परम सुख, परम संतोष मिलता है प्रेमी को। आत्मविसर्जन ही प्रेम का मूल मन्त्र हैं। प्रेमास्पद का हित और सुख ही प्रेमी का परम सुख है। इस प्रकार की स्थिति बातों से तो हो नहीं सकती। इस के लिये त्याग चाहिये। आपने व्याख्यान सुन लिया, प्रेम की महिमा सुन ली, कभी एक-दो बँदू आँसू देख लिये और किसी को प्रेमी मान लिया। यह ठीक नहीं है। प्रेम का पता तो तब लगेगा, जब उसकी प्रत्येक क्रिया में आपको त्याग की अनुभूति होगी। बहुत-से स्वार्थी लोग प्रेम की व्याख्या इसीलिये किया करते हैं कि लोग उन के प्रेमी बनें और वे उनके प्रेमास्पद प्रियतम बनें, अर्थात लोग अपना सर्वस्व उन्हें अर्पण कर दें। यह प्रेम के नाम पर लोगों को ठगना है। यहाँ नीच काम ही प्रेम की पोशाक पहनकर आता है। असल में प्रेम का व्याख्यान नहीं होता, प्रेम का तो आचरण होता है और वह किया नहीं जाता, होता है-बरबस होता है; क्योंकि प्रेमी से वैसा किये बिना रहा नहीं जाता। प्रेमास्पद उसे भले ही न चाहे, बदले में उससे प्रेम न करे, उसके प्रेम का तिरस्कार करे, उसे ठुकरा दे; पर प्रेमी के पास इन सब बातों की ओर देखने के लिये चित्त ही नहीं है। उसका चित्त तो अपने प्रेमास्पद में सहज ही लगा है। |
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