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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सच्चा एकान्तवस्तुतः बाहरी एकान्त का महत्त्व नहीं; सच्चा एकान्त तो वह है, जिसमें एक प्रभु को छोड़कर चित्त के अंदर और कोई कभी आये ही नहीं-शोक-विषाद, इच्छा-कामना आदि की तो बात ही क्या, मोक्षसुख भी जिस एकान्त में आकर बाधा न डाल सके। जब तक चित्त में नाना प्रकार के विषयों का चिन्तन होता है, तब तक एकान्त और मौन दोनों ही बाह्म हैं और महत्त्व भी उतना ही है, जितना केवल बाहरी दिखावे के लिये होने वाले कार्यों का होता है। उन प्रेमी महापुरुषों को धन्य है जो एकमात्र श्रीकृष्ण के ही रंग में पूर्ण रूप् से रँग गये हैं, जिनका चित्त जगत के विनाशी सुखों की भूलकर भी खोज नहीं करता, जिनकी चित्त वृत्ति संसार के ऊँचे-से-ऊँचे प्रलोभन की ओर भी कभी दृष्टि नहीं डालती, जिनकी आँखें सर्वत्र प्रियतम श्यामसुन्दर के दिव्य स्वरूप को देखती हैं और जिनकी सारी इन्द्रियाँ सदा केवल उन्हीं का अनुभव करती हैं। सच्चा एकान्तवास और सच्चा मौन उन्हीं प्रेमी महात्माओं में है। प्रेम और विकारआप लिखते हैं, ‘मैं प्रेम-धन से शून्य हूँ। बिना प्रेम के जीवन कैसा, वह तो बोझरूप है।’ यह आपका लिखना सिद्धान्ततः ठीक ही है। प्रेम शून्य जीवन शून्य ही है। परन्तु वास्तव में यह बात है नहीं। प्रेम सभी के हृदय में है, भगवान ने जीव को प्रेम देकर ही जगत में भेजा है। हमने उस प्रेम को नाना प्रकार से इन्द्रियचरितार्थता में लगाकर विकृत कर डाला है, इसीलिये उसके दर्शन नहीं होते-और कहीं होते हैं तो बहुत ही विकृत रूप में होते हैं। विकृत स्वरूप का नाश होते ही मोह का पर्दा फट जाता है, फिर प्रेम का वास्तविक ज्योतिर्मय स्वरूप प्रकट होता है, जिसके प्राकट्य मात्र से ही आनन्दाम्बुधि उमड़ पड़ता है। प्रेम और आनन्द का नित्य-योग अनिवार्य है। भगवान के आनन्द से प्रेम की सृष्टि हुई है और इस प्रेम से ही आनन्द का अभाव हो और आनन्द भी कोई ऐसा नहीं, जिसमें कारण रूप् से प्रेम वर्तमान न हो। परंतु जहाँ प्रेम के नाम पर काम की क्रीड़ा होने लगती है वहाँ प्रेम अपने को छिपा लेता है। चिरकाल सेमिलना माया के मोहवश हम काम की क्रीड़ा में लगे हैं, काम को ही प्रेम समझ बैठे हैं। इसीलिये प्रेम हम से छिप गया है और इसीलिये प्रेम के अभाव में हम आनन्द रहित केवल ‘चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः’ और ‘कामोपभोगपरमाः’[1] होकर शोक- विग्रह बन गये हैं। इस काम की कालिमा को धोने के लिये आवश्यकता है किसी ऐसे क्षार की, जो इसकी जड़ तक का नाश कर दे; और वह क्षार वैराग्य है। |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ गीता 16/11
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