श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवत्प्रेम की प्राप्ति के साधनसचमुच मनुष्य, जो अपने जीवन को भगवान से विमुख बिता देता है, बड़ी भारी भूल करता है। जीवन बीत जाने पर बड़ा पश्चत्ताप होता है-हाय! जीव-जीवन में मिला हुआ सुअवसर बड़ी बुरी तरह खो दिया। मनुष्य-जीवन का एकमात्र प्रयोजन होना चाहिये भगवान की या भगवत्प्रेम की उपलब्धि। गंगा की धारा जैसे निरन्तर अनवरत रूप् से समुद्र की ओर जाती है- सारी विघ्र- बाधाओं को हटाती हुई, एक लक्ष्य से, वैसे ही हमारी चित्त वृत्तियाँ, हमारी चेष्टाएँ, हमारी चिन्तनाएँ, हमारी क्रियाएँ, हमारे अनुभव- सब जाने चाहिये केवल भगवान की ओर! यह सत्य है, भगवत्प्रेम की प्राप्ति के लिये अन्य सारे प्रेमों का त्याग कर देना पड़ेगा। सब कुछ उस प्रेम की आग में जला डालने के लिये हँसते- हँसते तैयार हो जाना पड़ेगा मौका पाते ही बिना चुके इन सब कुछ को वैसे ही जला डालना होगा, जैसे बिना विलम्ब तत्परता से हम मुर्दे को फूँक देते हैं। मुर्दे को फूँककर तो आत्मीयता के सम्बन्ध से हम रोते हैं; परंतु भगवत्प्रेम की आग में जब विषयों का मुर्दा फुँक जाता है, तब तो रोने के - विषाद से और शोक से रोने के मूल कारण ही नष्ट हो जाते हैं। फिर रोना भी होता है तो वह बड़े ही आनन्द का कारण होता है; क्योंकि उसकी उत्पत्ति आनन्द से ही होती है। इसलिये केवल भगवान का ही चिन्तन कीजिये। भगवान से प्रार्थना कीजिये, हमारा सारा जीवन- जीवन की क्षुद्र-से-क्षुद्र चेष्टा भगवान के लिये ही हो। सम्पूर्ण हृदय से हम भगवान को ही भजें। दूसरे के लिये न मन में स्थान हो और न दूसरे की सेवा में कभी तन लगे। तन, मन, वचन, धन -जो कुछ है, उन्हीं का तो है। उनकी वस्तु उन्हीं के अर्पण हो जाय। जो वस्तु उनके अर्पण हो जाती है, वही बचती है; वह हो जाती है अनमोल और वह हमें विपत्ति के अथाह समुद्रों से तार देती हैं। प्रेम में खोना और अलग होना नहीं होता, खोने और अलग होने में भी पाना ही होता है। यही तो प्रेम का रहस्य है। |
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