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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भाव के विभिन्न स्तरयह साधन सापेक्ष नहीं है। इसकी प्राप्ति तो तभी होती है, जब भगवान स्वयं देते हैं। इस प्रकार की प्रेमदान-लीला प्रत्यक्ष में एक ही पावन धाम में हुई थी। वह धाम है - ‘श्रीवृन्दावनधाम’। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - ये चार पुरुषार्थ हैं। इनमें मोक्ष उच्चतम है। इससे भी उच्च स्तर का पुरुषार्थ - जो भक्तों की भाषा में ‘पंचम पुरुषार्थ’ माना जाता है - है ‘भावोत्थ विशुद्ध माधुर्यमय प्रेम’। और भगवद्-प्रदत्त ‘अतिप्रसादोत्थ’ भगवत्स्वरूप प्रेम तो सबसे बढ़कर है। भगवान श्रीकृष्ण प्रेमस्वरूप हैं, प्रेम के ही वश में है; प्रेम से ही उनका आकर्षण होता है और उन्हीं से यथार्थ प्रेम की प्राप्ति होती है। अतएव प्रेम चाहने वाले साधनों को प्रेममय श्रीकृष्ण की ही उपासना करनी चाहिये। रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकारभगवान श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। उनकी प्रत्येक लीला आनन्दमयी है। उनकी मधुर लीला को आनन्द-श्रृंगार भी कह सकते हैं। परंतु इतना स्मरण रखना चाहिये कि उनका यह आनन्द-श्रृंगार मायिक जगत् की कामक्रीडा कदापि नहीं है। भगवान की ह्लादिनी शक्ति श्रीराधिकाजी तथा उनकी स्वरूपभूता गोपियों के साथ साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण की परस्पर मिलन की जो मधुर आकांक्षा है, उसी का नाम आप आनन्द-श्रृंगार रख सकते हैं। यह काम-गन्धरहित विशुद्ध प्रेम ही है। श्रीकृष्ण की लीला में जिस ‘काम’ का नाम आया है, वह अप्राकृत ‘काम’ है। ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ’ भगवान के सामने प्राकृत काम तो आ ही नहीं सकता। वैष्णव भक्तों ने रति के तीन प्रकार बतलाये हैं - ‘समर्था’, ‘समन्जसा’ और ‘साधारणी’। ‘समर्था’ रति उसे कहते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण के सुख की एकमात्र स्पृहा और चेष्ठा रहती है। यह अप्राकृत है और व्रजमात्र में श्रीमती राधिकाजी में ही इसका पूर्ण विकास माना जाता है। ‘समन्जसा’ रति उसे कहते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण के और अपने - दोनों के सुख की स्पृहा रहती है; और ‘साधारणी’ रति उसका नाम है, जिसमें केवल अपने ही सुख की आकांक्षा रहती है। इन तीनों में ‘समर्था’ रति सबसे श्रेष्ठ है। इसका प्रसार महाभाव तक है। यही वास्तविक ‘रस-साधना’ है। |
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