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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘लँगर मोरि गागर फोरि गयौ’
श्यामसुन्दर अचानक आकर गोपी की गागर फोड़ चले। उसकी नयी चुनरी को चीर-चीरकर बाँह मरोड़ गये, उसे व्रज में सबसे अधिक सुन्दरी बताकर उसका नख-शिख निरख-परखकर सघन कुंज की ओर चले गये और जाते समय उसके हजार रोकते-रोकते मोतियों का हार भी तोड़ गये। गोपी प्रणयकोप से श्यामसुन्दर को ‘लँगर’ कहकर अपनी सखी को सब हाल सुना रही है। धन्य हो तुम व्रज की गोपियों, जो तुम्हारे लिये श्यामसुन्दर स्वयं पधारते हैं और अपने हाथों तुम्हारी गागर फोड़ जाते हैं। क्यों न हो? तुमने जो इसका अधिकार प्राप्त कर लिया है! इस लोक और परलोक की सारी भोग-वासनाओं के और जागतिक मोह-ममता, अभिमान-अहंकार, राग-रंग और नीति-रीति आदि समस्त विकारों के विष भरे कु-रस से अपनी गागर को बिलकुल ख़ाली करके और कठिन नियम-संयम की पवित्र सुधा धारा से उसे अच्छी तरह धोकर तुमने उसमें मधुर गोरस-दिव्य प्रेम-रस भर लिया है और वह मधुर रस भरा भी है तुमने केवल श्रीश्यामसुन्दर को आप्यायित करने के लिये ही! तभी तो प्रेमसुधा के प्यासे तुम्हारे परम प्रियतम श्यामसुन्दर नटवर-वेष में बड़ी साधना से संचित तुम्हारे मधुरातिमधुर प्रेमरस का पान करने के लिये तुम्हारे समीप दौड़े आये हैं। समस्त विश्व को आनन्दित करने वाले उस मधुर दिव्य प्रेमरस को भला, वे तुम्हारी नन्हीं-सी संकुचित गगरिया में कैसे रहने दें। तुम्हारी गागर फोड़ डालते हैं और अपनी अनन्त महिमा से तुम्हारे प्रेमरस को (परिमाण और माधर्य-दोनों में) अनन्तगुना बनाकर अनन्त मुखों से स्वयं उसे पान करते हैं और अनन्त हाथों से जगत् के अनन्त जीवों को बाँट देते हैं। परमपद पर पहुँचे हुए प्रेमस्वरूप गोपी भक्तों का मधुर प्रेमरस ही भगवान के द्वारा जगत् में विस्मृत सारे जगत् को पवित्र प्रेम का दान करने वाली गोपी! तुम धन्य हो![1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ परमपदपर पहुचें हुए प्रेमी भक्तों का मधुर प्रेमरस ही भगवान के व्दारा जगत में विस्तुत होकर मातृप्रेम, पितृप्रेम, मातृपितृभक्ति, धर्मप्रेम, विश्वप्रेम, देशप्रेम, पतिपत्नीप्रेम, मैत्रीप्रेम आदि नाना भावों में पात्रानुसार परिणत होता हुआ क्रमशः शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्यभाव में पहुँचकर फिर अपने उद्गमस्थान की ओर अग्रसर होता है और अन्त में मधुर प्रेम के रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार के गुणरहित, कागनारहित, प्रतिक्षणवर्धमान, सूक्ष्मतर, अनुभवरूप, अविच्छित्र भगवत्प्रेम को नित्य निर्मल और दिव्य धारा का जिसमें पर्यवसान होता है, वही प्रेम का अनिर्वचनीय स्वरूप है और वह भगवान से सर्वथा अभिन्न है।
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