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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेमभक्ति में भगवान और भक्त का सम्बन्धभगवान ने घोषणा की है कि मैं जैसा भक्ति से शीघ्र मिलता हूँ, वैसा अन्य किसी साधन से नहीं मिलता-
‘जिस प्रकार मेरी अनन्य भक्ति मुझे वश में करती है, उस प्रकार मुझको योग, ज्ञान, धर्म, स्वाध्याय, तप और त्याग- वश में नहीं कर सकते।’ दिव्य प्रेमप्रेम की सबसे पहली और एकमात्र मुख्य शर्त है - ‘स्वसुख-वान्छा की कल्पना का भी अभाव।’ एक बड़ी सुन्दर निकुन्जलीला है। एक सखी ने एक दिन ऐसा नख-शिख श्रृंगार किया कि जो प्राणप्रियतम श्यामसुन्दर को परम सुख देने वाला था। उसने दर्पण में देखा और वह चली श्यामसुन्दर को दिखाकर उन्हें सुखी करने की मधुर लालसा से। प्रियतम श्यामसुन्दर निभृत निकुन्ज में कोमल कुसुम और किसलय की सुरभित शय्या पर शयन कर रहे हैं। अलसायी आँखों में नीच छायी है; बीच-बीच में पलक खुलती है, पर तुरंत ही बंद हो जाती है। प्रेममयी गोपी आयी है अपनी श्रृंगारसुषमा से श्यामसुन्दर को सुखी करने के लिये। उसके मन में स्व-सुख की तनिक भी वान्छा नहीं है। पर श्यामसुन्दर सो रहे हैं। वह चाहती है, एक बार देख लेते तो उन्हें बड़ा सुख होता। उसके हाथ में कमल था, उसके पराग को वह उड़ाने लगी। सोचा, कोई परागकण प्रियतम श्यामसुन्दर के नेत्रों में पड़ जायगा तो कुछ क्षण नेत्र खुले रह जायँगे। इतने में वे मेरे श्रृंगार को देख लेंगे, उन्हें परम सुख होगा। इसी बीच में नित्यनिकुन्जेश्वरी श्रीराधारानी वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने प्यारी सखी से पूछा- ‘क्या कर रही हो?’ सखी ने सब बताया। श्रीराधारानी स्वयं स्वभाव से ही श्यामसुन्दर का सुख चाहती हैं। पर यहाँ सखी की यह चेष्टा उन्हें ठीक नहीं लगी। उन्होंने कहा- ‘सखी! तुम्हारा मनोभाव बड़ा मधुर है; पर श्यामसुन्दर को जब तुम सुखी देखोगी, तब तुम्हें अपार सुख होगा न? किंतु श्यामसुन्दर के इस सुख से तुमको तभी सुख मिलेगा, जब उनकी सुखनिद्रा में विघ्न उपस्थित होगा। इस आत्मसुख के लिये उनकी सुखनिद्रा में बाधा उपस्थित करना कदापि उचित नहीं है।’ सखी ने केवल श्रीकृष्ण-सुख के लिये ही श्रृंगार किया था; परंतु इसमें भी स्व-सुख की छिपी वासना थी, इस बात को वह नहीं समझ पायी थी। प्रेमतत्त्व का सूक्ष्म दर्शन करने वाली प्रेमस्वरूपा श्रीराधिकाजी ने इसको समझा और सखी को रोक दिया। सखी प्रेमतत्त्व का सूक्ष्म परिचय पाकर प्रसन्न हो गयी। |
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