श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा का त्यागमय एकांगी निर्मल भावपवित्रतम प्रेम-सुधामयी श्रीराधा ने प्रियतम प्रेमार्णव श्रीश्यामसुन्दर के दर्शन करके सर्वसमर्पण कर दिया। अब वे आठों पहर उन्हीं के प्रेम-रस-सुधा-समुद्र में निमग्न रहने लगीं। श्यामसुन्दर मिलें-न-मिलें- इसकी तनिक भी परवा न करके वे रात-दिन अकेले में बैठी मन-ही-मन किसी विचित्र दिव्य भावराज्य में विचरण किया करतीं। न किसी से कुछ कहतीं, न कुछ चाहतीं, न कहीं जातीं-आतीं। एक दिन एक अत्यन्त प्यारी सखी ने आकर बहुत ही स्नेह से इस अज्ञात विलक्षण दशा का कारण पूछा तथा यह जानना चाहा कि वह सबसे विरक्त होकर दिन-रात क्या करती है।
‘प्रिय सखी! मेरे प्रभु के श्रीचरणों में मैं और जो कुछ भी मेरा था, सब समर्पित हो गया। मैंने किया नहीं, हो गया। जगत् में पता नहीं किस काल से जो मेरा डेरा लगा था, वह सारा डेरा सदा के लिये उठ गया। मेरी सारी ममता सभी प्राणी-पदार्थ-परिस्थितियों से हट गयी, अब तो मेरी सम्पूर्ण ममता का सम्बन्ध केवल एक प्रियतम प्रभु से ही रह गया। जगत् में जहाँ कहीं भी, जितना भी, जो भी मेरा प्रेम, विश्वास और आत्मीयता का सम्बन्ध था, सब मिट गया।
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