श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
कुछ लोग गीता के श्रीकृष्ण को निपुण तत्त्ववेत्ता, महायोगेश्वर, निर्भय योद्धा और अतुलनीय राजनीति-विशारद मानते हैं, परंतु भागवत के श्रीकृष्ण को इसके विपरीत नचैया, भोग-विलास-परायण, गाने बजाने वाला और खिलाड़ी समझते हैं; इसीसे वे भागवत के श्रीकृष्ण को नीची दृष्टि से देखते हैं या उनको अस्वीकार करते हैं और गीता के महाभारत के श्रीकृष्ण को ऊँचा या आदर्श मानते हैं। वास्तव में यह बात ठीक नहीं है। श्रीकृष्ण जो भागवत के हैं, वे ही महाभारत या गीता के हैं। एक ही भगवान की भिन्न-भिन्न स्थलों और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न लीलाएँ हैं। भागवत के श्रीकृष्ण को भोग-विलास-परायण और साधारण नचैया-गवैया समझना भारी भ्रम है। अवश्य ही भागवत की लीला में पवित्र और महान दिव्य प्रेम का विकास अधिक था; परंतु वहाँ भी ऐश्वर्य-लीला की कमी नहीं थी। असुर-वध, गोवर्धन-धारण, अग्नि- पान, वत्स-बालरूप- धारण आदि भगवान की ईश्वरीय लीलाएँ ही तो हैं। नवनीत-भक्षण, सखा-सह-विहार, गोमी-प्रेम आदि तो गोलोक की दिव्य लीलाएँ हैं। इसीसे कुछ भक्त भी वृन्दावन विहारी मुरलीधर रसराज प्रेममय भगवान श्रीकृष्ण की ही उपासना करते हैं, उनकी मधुर भावना में-
-यदुनन्दन श्रीकृष्ण दूसरे हैं और वृन्दावन विहारी पूर्ण श्रीकृष्ण दूसरे हैं। पूर्ण श्रीकृष्ण वृन्दावन छोड़ कर कभी अन्यत्र गमन नहीं करते। बात ठीक है- इसी प्रकार कुछ भक्त गीता के ‘तोत्त्रवेत्रैकपाणि’ योगेश्वर श्रीकृष्ण के ही उपासक हैं। रुचि के अनुसार उपास्य देव के स्वरूप भेद में कोई आपत्ति नहीं; परंतु जो लोग भागवत या महाभारत के श्रीकृष्ण को वास्तव में भिन्न-भिन्न मानते हैं या किसी एक का अस्वीकार करते हैं, उनकी बात कभी नहीं माननी चाहिये। महाभारत में भागवत के और भागवत में महाभारत के श्रीकृष्ण के एक होने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। एक ही ग्रन्थ की एक बात मानना और दूसरी को मन के प्रतिकूल होने के कारण न मानना वास्तव में यथेच्छाचार के सिवा और कुछ भी नहीं है। साधकों को इन सारे बखेड़ों से अलग रहकर भगवान को पहचानने और अपने को ‘सर्वभावेन’ उनके चरणों में समर्पणकर-शरणागत हो कर उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये। |
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