श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘तीन मधुर प्रसंग’(1)श्रीकृष्ण द्वारका में थे। व्रज गोपियों की बात छिड़ते ही विह्वल हो उठते थे। पटरानियों को इससे बहुत ईर्ष्या होती थी। इनकी ईर्ष्या भंग करने के लिये भगवान ने एक लीला का अभिनय किया। नित्य निरामय भगवान रुग्ण हो गये। रोग भी कठिन था। वैद्यजी ने औषण की व्यवस्था की, अनुपान बतलाया ‘चरणरज’। यह अनुपान कौन देता? चरण रज के लिये सभी से पूछा गया। रुक्मिणी, सत्यभामा आदि सभी महिर्षियों ने नरक के डर से चरणरज देने की बात पर मुँह मोड़ लिया। श्रीकृष्ण को चरणरज देने का दुस्साहस कौन करता। देवर्षि नारद जी को भेजा गया विश्व के सभी देव- देवताओं के पास। परंतु किसकी हिम्मत थी जो ऐसा दुस्साहस करे। नारदजी म्लानमुख ख़ाली हाथ लौट आये। भगवान ने कहा, ‘एक बार व्रज जाकर तो शेष चेष्टा कर देखो।’ नारदजी को बात बहुत नहीं भायी। परंतु भगवान का कहना था, व्रज जाना ही पड़ा। नारद जी हमारे श्यामसुन्दर के पास से आये हैं, सुनकर पगली श्रीराधाजी के साथ व्रजांगनाएँ बासी मूँह ही दौड़ीं प्राणनाथ की कुशल पूछने के लिये। नारद जी ने श्रीकृष्ण की अस्वस्थता की बात सुनायी। गोपियों के प्राण सूख गये। उन्होंने कहा- ‘क्यों क्या वहाँ कोई वैद्य नहीं है?’ ‘वैद्य भी हैं, दवा भी तैयार है; परंतु अनुपान नहीं मिलता।’- नारद जी ने कहा। ‘ऐसा क्या अनुपान है?’ ‘अनुपान बहुत ही दुर्लभ है, सारे जगत् में चक्कर लगा आया। है सभी के पास, पर कोई भी देना नहीं चाहता या दे नहीं सकता। ‘कहिये, कहिये भगवन्! क्या वह अनुपान हम लोगों के पास भी है? होगा तो हम अवश्य ही देंगी’, व्रजगोपियों ने व्याकुल होकर कहा। ‘तुम नहीं दे सकोगी।’ |
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज