श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘तीन मधुर प्रसंग’(1)‘जिसे उनको न दे सकें, ऐसी हमारे पास कोई वस्तु कैसे रह सकती है? ‘अच्छा! क्या श्रीकृष्ण को अपने चरणों की धूल दे सकोगी। इसी अनुपान के साथ दवा देने से उनका रोग नाश होगा।’ ‘यह कौन-सी बड़ी कठिन बात हुई? लो, हम पैर बढ़ाये देती हैं; जितनी चाहिये, चरणधूलि अभी ले जाओ’- गोपियों ने सरल हृदय और उत्साह से कहा। ‘‘अरी, करती क्या हो? क्या तुम यह नहीं जानती कि श्रीकृष्ण ‘भगवान’ हैं, भगवान को चरणधूलि दे रही हो? वे जगत्पति हैं, क्या तुम्हें नरक का भय नहीं है?’’ नारद ने आश्चर्य चकित होकर कहा। ‘नारदजी! हमारी मुक्ति-भुक्ति, स्वर्ग-नरक, जीवन-मरण, सुख-दुःख, हँसी-रुलाई-सब एक श्रीकृष्ण ही हैं। अनन्त नरकों में जाकर भी यदि हम श्यामसुन्दर की देह को पुनः स्वस्थ और सबल पा सकें तो हम ऐसे मनचाहे नरक का तो नित्य ही भजन करें। जानते नहीं, नारदजी! हमारे लिये श्यामसुन्दर ने अघासुर (अघ-असुर), नरकासुर (नरक-असुर) आदि को तो पहले से ही मार रखा है। हम न पाप जानती हैं और न नरक मानती हैं। हम तो जानती हैं एक मात्र हमारे श्यामसुन्दर के सुख को-लीला विलास को। तुम्हारे सारे पापों और नरकों को हम लोगों ने इस लीला विलास के अंदर शरीर में मल लिया। इसी से तो हम जल - मल रही हैं। यह मरना ही हमारा जीवन है।’ नारद का वक्षःस्थल पवित्र प्रेमधारा से धुल गया। नारदजी ने गोपांगनाओं सहित श्रीश्रीराधारानी के चरणों की रज लेकर थोड़ी-सी तो अपने सम्पूर्ण अंगों में लगायी और शेष बची हुई की पोटली बाँध ली, विश्वेश्वर की ऐश्वर्य-व्याधि के विनाश के लिये। गोपी-पद-रज के स्पर्श से परमोज्जवल -तनु होकर जब नारदजी चरणधूलि की पोटली को मस्तक पर रखे द्वारका में आनन्द की लहर बह चली। चरणरज के अनुपान से श्रीकृष्ण ने औषध ली और सहज ही निरामय हो गये। महिषियों का मानभंग हो गया, उन्होंने आज प्रत्यक्ष प्रमाण से गोपी-प्रेम की अपार अतलस्पर्शी गम्भीरता और मधुरिमा को देख लिया और श्रीकृष्ण गोपियों की बात छिड़ते ही क्यों तन-मन की सुधि भूल जाते हैं, इसका रहस्य भी उनकी समझ में आ गया! धन्य प्रेमयोग! |
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