श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा का स्वरूप(सं. 2012 वि. के श्रीराधाष्टमी-महोत्सव पर प्रवचन) (दिन में)साधना की दो धाराएँ हैं— अनादिकाल से। एक धारा में ‘अहम्’ के परिणाम की चिन्ता है, ‘अहम्’ के मंगल की भावना है। दूसरी धारा में ‘अहम्’ का सर्वथा समर्पण है। इन्हीं दो धाराओं के अनुसार अध्यात्मराज्य की सारी साधनाएँ चलती हैं। इस समय विशेष विस्तार की आवश्यकता नहीं, संक्षेप में जिस धारा में कर्म की और ज्ञान की प्रधानता है, उस धारा में आत्मपरिणाम की चिन्ता है; ‘अहम्’ के मंगल की भावना है। भगवान् ने गीता के अन्तिम उपदेश में कहा हैैं—
यह बड़ा सुन्दर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपदेश भगवान् का है। परंतु इस उपदेश में ‘पापनाश का प्रलोभन’ है। ‘तुम्हारे पापों का नाश मैं कर दूँगा, तुम चिन्ता न करो।’ पाप का भय है, नहीं तो चिन्ता की कोई आवश्यकता नहीं। साधक समझता है कि मेरे पाप का नाश कैसे होगा, मेरा मंगल कैसे होगा। ‘अहम्’ के मंगल की भावना है, इसमें ‘अहम्’ के परिणाम की चिन्ता है। इससे आगे और बढ़ते हैं तो कहते हैं कि ‘हमारा बन्धन से छुटकारा हो जाना चाहिये, मुक्ति मिल जानी चाहिये। किसको? जिसे बन्धन है, उसको।’ मुक्ति की चाह में ‘अहम्’ की अपेक्षा है ही। बन्धन की कल्पना में यह सहज बात है कि ‘मैं बन्धन में हूँ, मुझे मुक्ति मिले।’ यहाँ मोक्ष की इच्छा है, जिसे ‘मुमुक्षा’ कहते हैं। इसका अर्थ यही होता है कि उसे बन्धन की तीव्र वेदना है और वह बन्धन से छूट जाना चाहता है। ‘मैं बन्धन में हूँ और मैं छूट जाऊँ’ यह जो बन्धन का बोध है, इसमें ‘अहम्’ के मंगल की आकांक्षा भरी है। इसी से जहाँ कोई प्रलोभन नहीं, जहाँ ऐसी कोई भावना नहीं, इसके बाद की वह स्थिति बतलाते हैं। कुछ नयी-सी बातें मालूम होंगी, क्षमा कीजियेगा— |
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