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भगवान् के ये गूढ़ रहस्यमय वचन सुनने पर श्री राधिका और गोपियों का क्षोभ दूर हो गया, उन्हें अपने वास्तविक स्वरूप का भान हो गया और उन्होंने चित्त में प्रसन्न हो कर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में प्रणाम किया।
- श्रीकृष्ण का स्वरूप-तत्त्व
- वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति।
-इस पर यह शंका उठायी जाती है कि यदि श्रीकृष्ण वृन्दावन छोड़कर कहीं नहीं जाते तो सर्वव्यापी कैसे हुए? यह शंका भगवान के स्वरूप और स्वभाव को न जानने के कारण ही उठायी जाती है। भगवान प्रेमस्वरूप हैं, प्रेम की निधि हैं, प्रेम में ही प्रकट होते हैं, प्रेमियों के साथ रहते हैं, प्रेमियों को सुख देने तथा उनके साथ प्रेममयी लीलाएँ करने में ही उनको आनन्द मिलता है। श्री रामचरितमानस में भगवान शंकर का कथन है- ‘हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।’
भगवान सर्वत्र व्यापक हैं, कण-कण में उनकी स्थिति है; किंतु प्रेम से ही वे प्रकट होते हैं। ब्रह्मरूप् से, निर्गुण-निराकार स्वरूप से वे सर्वत्र हैं, सर्वदा हैं और सबमें हैं- इसको कौन अस्वीकार कर सकता है? किंतु सगुण-साकार विग्रह, जो कोटि-कोटि कन्दर्प का दर्प दलन करने वाला है, सर्वत्र नहीं- प्रेम-धाम में ही प्रकट होता है। प्रेम के भूखे बाँके विहारी प्रेम धाम वृन्दावन छोड़कर और कहाँ रह सकते हैं। जहाँ श्रीकृष्ण को तन-मन-प्राण समर्पित करने वाली प्रेममयी गोपियाँ नहीं हैं, श्रीकृष्ण को ही जीवन-सर्वस्व मानकर तदेक प्राण होकर रहनें वाली श्रीराधारानी नहीं हैं तथा श्यामसुन्दर को सुख पहुँचाने के लिये ही जीवन धारण करने वाले प्रेमी ग्वाल-बाल नहीं हैं, वहाँ प्रेमपरवश श्रीकृष्ण कैसे रह सकते हैं। अतः जो प्रेमस्वरूप प्रेमास्पद श्रीकृष्ण को पाना चाहता है, वह वृन्दावन का आश्रय ले; गोमी, ग्वाल-बाल तथा श्रीराधारानी की कृपा प्राप्त करे। तभी वह गोपी वल्लभ की रूपामाधुरी का पान कर सकता है। जिसके हृदयरूपी व्रज में वृन्दावन, गोप-बालक, श्रीगोपी जन, श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण की प्यारी गौएँ हैं, जो इन सबके साथ श्रीकृष्ण को अपने हृदय मन्दिर में बिठाकर उनका चिन्तन करता है, वह प्रेमानन्दमय श्रीकृष्ण को शीघ्रता पूर्वक पा सकता है।
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