श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रही कवियों की बात, सो मेरी समझ से कवि तीन श्रेणियों में बाँटे जा सकते हैं-(1) वे भक्त कवि, जिन्होंने लीला का प्रत्यक्ष अनुभव किया; (2) वे कवि, जिन्होंने लीला पर विश्वास करके श्रद्धा, भक्ति और पवित्रभाव से व्रजलीला की रचना की और (3) वे श्रृंगारी कवि, जो पवित्र या अपवित्र भाव से भी श्रृंगार का वर्णन करने के लिये श्रीकृष्ण और श्रीराधारानी या गोपीजनों को नायक-नायिका के स्थान में बैठाकर काव्य रचना करते हैं। नाम बतलाने की और कौन किस श्रेणी में है, यह निर्णय करने की मुझमें सामर्थ नहीं। किसके मन में क्या था, कौन जान सकता है? हाँ, श्रीसूरदासजी, तुलसीदासजी, नन्ददासजी आदि भक्त कवियों के प्रति मेरी श्रद्धा है और उन्होंने जो कुछ कहा है, अत्यन्त पवित्रभाव से कहा है-यह मेरा विश्वास है। तुलसीदास जी यद्यपि श्रीरामभक्त थे, इसलिये यह आवश्यक नहीं कि वे श्रीकृष्णचरित्र का वर्णन करते ही, तथापि उन्होंने श्रीकृष्ण-गीतावली में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का संक्षेप में बड़ा ही मधुर वर्णन किया हैं व्रजसुन्दरियों के भगवानश्रीश्रीव्रजसुन्दरियों को निबिड़ अरण्य में छोड़कर आनन्दकन्द व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र अन्तर्धान हो गये। वे सब विरह के आवेश में अपने प्राण-प्रियतम को खोजने लगीं। खोजते-खोजते श्रीकृष्णमय बन गयीं। तदनन्तर श्रीकृष्णदर्शन-लालसा से कातर होकर प्रलाप करने और फूट-फूटकर रोने लगीं। ठीक इसी समय श्यामसुन्दर उनके बीच में मधुर-मधुर मुसकराते हुए प्रकट हो गये। उनका मुख-कमल मन्द-मन्द मुस्कान से खिला हुआ था। पीताम्बर धारण किये हुए थे। गले में दिव्य वनमाला थी। उनका सौन्दर्य समस्त विश्व-प्राणियों के मन को मथने वाले, कामदेव के मन को भी मथने वाला था। वे ‘साक्षात्’ मन्मथ-मन्मथ’ थे। करोड़ों कामदवों से भी सुन्दर मधुर मनोहर श्यामसुन्दर को अपने बीच में पाकर व्रजसुन्दरियों के प्राणहीन शरीरों में मानो दिव्य प्राण लौट आये। उनके नेत्र आनन्द और प्रेम से खिल उठे। हठात् प्रियतम के प्राकट्य से उनके हृदय में नवीन स्फूर्ति आ गयी। उनके एक-एक अंग में नवीन चेतना जाग उठी। उन्होंने अपने-अपने मन के अनुसार प्रियतम की आव-भगत की-किसी ने उनको कोमल कर-कमलों को अपने हाथों से पकड़ लिया, किसी ने चरणारविन्द का आलिंगन किया, किसी ने चरण पकड़कर अपने हदय पर रख लिया, किसी ने उनका चबाया हुआ पान ग्रहण किया, किसी ने प्रणय-कोप से विह्वल होकर त्यौरी चढ़कर दूर से ही भृकुटिपूर्ण कटाक्षपात किया और कोई-कोई निर्निमेष नेत्रों के द्वारा उनके मनोहर मुख कमल का मधुर मकरन्द पान करने लगीं। |
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