श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
स्वयं-भगवान कब और क्यों आते हैं?
प्रकृति स्वाभाविक अधोगामिनी है। प्रकृति में सहज ही सत्त्व रजोमुखी होता है और रजोगुण तमोगुण ओर प्रवाहित होता है। किसी समर्थ पुरुष के द्वारा यदि रुकावट नहीं होती, तो प्रकृति की यह निम्नगामिनी गति निर्बाध चलती रहती है और ज्यों-ज्यों वह निम्न स्तपरपर पहुँचती है-त्यों-ही-त्यों अध्यात्म के स्थान पर घोर अधिभूत छाने लगता है। मानव आसुरी तथा राक्षसी भावों से आक्रान्त हो जाता है। उसमें अहंता-ममता, कामना-वासना, स्पृहा-आसक्ति बुरी तरह से बढ़ने लगती हैं। चोरी, डकैती, लूट, हिंसा, छल, ठगी-किसी भी उपाय से हो, वह भोग (अर्थ, अधिकार, पद, मान शरीर का आराम आदि) प्राप्त करने में ही तत्पर हो जाता है। धर्म, सत्य, न्याय को कोई स्थान नहीं रह जाता। राजाओं और शासकों के रूप में सर्वथा अनीतिपरायण, स्वेच्दाचारी, असदाग्रही नीच-स्वार्थरस असुरों का आधिपत्य हो जाता है। पवित्र प्रेम के नाम पर नीच काम की उद्दाम क्रीडा होने लगती है। कुलवधुएँ कुलटा होन में गौरव का अनुभव करती हैं। ईश्वर तथा धर्म का एवं साधक तथा साधना का प्रबल विरोध होता है। ईश्वर को मानने वाले साधुचरित्र पुरुषों पर अत्याचार होने लगते हैं। सच्चे परमार्थ-साधकों को लान्छित, अपमानित होकर पद-पदपर विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है। |
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