श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेम का स्वरूपप्रेम और परमात्मा में कोई अन्तर नही; जिस प्रकार वाणी से ब्रह्म का वर्णन असम्भव है, वेद ‘नेति-नेति’ कहकर चुप हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रेम का वर्णन भी वाणीद्वार नहीं हो सकता। संसार में हम देखते हैं कि प्रिय वस्तु के मिलने पर, उसका समाचार पाने पर, उसके स्पर्श, आलिंगन और प्रेमालाप का सुअवसर मिलने पर हृदय में जिस आनन्द का अनुभव होता है, उसका वर्णन वाणी कभी नहीं कर सकती। जिस प्रेम का वर्णन वाणी के द्वारा हो सकता है, वह तो प्रेम का सर्वथा बाहरी रूप है। प्रेम तो अनुभव की वस्तु है। प्रेम का अनुभव होता है मन में और मन रहता है सदा अपने प्रेमास्पद के पास। फिर भला मन के अभाव में वाणी को यत्ज्जित् भी वर्णन करने का असली मसाला कहाँ से मिले? अतएव प्रेम का जो कुछ भी वर्णन मिलता है, वह केवल सांकेतिक मात्र है- बाह्य है। प्रेम की प्राप्ति हुए बिना तो प्रेम को कोई जानता नहीं और प्राप्ति होने पर वह अपने मन से हाथ धो बैठता है। जल में मुख से शब्द का उच्चारण तभी तक होता है, जब तक मुख जल से बाहर रहता है, जब मनुष्य अतलतल में डूब जाता है, तब तो डूबने वाले की लाशका पता लगना भी कठिन होता है। इसी प्रकार जो प्रेम-समुद्र में डूब चुका है, वह कुछ कह ही नहीं सकता, और ऊपर-ऊपर डुबकियाँ मारने और डूबने-उतराने वाले जो कुछ कहते हैं, वह केवल ऊपर-ऊपर की ही बात होती है। जैसे गूँगा गुड खाकर प्रसन्न होता है, हँसता है, परन्तु गुड़ का स्वाद नहीं बतला सकता, उसी प्रकार प्रेमी महात्मा प्रेम का अनुभव करके आनन्द-निमग्र हो जाते है, परंतु अपने उस अनुभव का स्परूप दूसरे किसी को बतला नहीं सकते। इस प्रेम में तन्मयता होती है। इसलिये प्रेमी यह नहीं जानता कि मैं क्या हूँ और क्या जानता हूँ। इसी से श्रीराधा ने एक समय कहा है कि ‘हे सखि! मैं कृष्ण प्रेम की बात कुछ भी नहीं जानती, नहीं समझती और जो कुछ जानती हूँ, उसे प्रकट करने योग्य भाषा मेरे पास नहीं है। मैं तो इतना ही जानती हूँ कि जब हृदय के अन्दर उनका स्पर्श होता है, तभी मेरा सारा ज्ञान चला जाता है।’ यह तो निश्चित है कि वाणी द्वारा प्रेम का स्परूप नहीं बतलाया जा सकता; परंतु जब कोई प्रेम मद से छके हुए भाग्यवान् महापुरुष तन-मन की सुधि भुलाकर दिव्य उन्मत्तवत् चेष्टा करने लगते हैं, तब प्रेम का कुछ-कुछ प्रकाश लोगों को प्रकट दीखने लगता है। उस समय ऐसे महात्मा की केवल वाणी से और नेत्रों से ही नहीं, शरीर के रोम-रोम से प्रेम की किरणें अपने-आप ही निकलने लगती हैं। |
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