एक गोपी रसोई बना रही थी, इतने में मोहन की मुग्धकारिणी मुरली बजी। मुरली ध्वनि के साथ ही मुरलीधर की मधुर छवि गोपी के ध्यान-नेत्रों के सामने आ गयी। इधर उस रस वर्षिणी मुरली ध्वनि ने रस बरसाकर चूल्हे की सारी लकड़ियों के हृदय को गीला कर दिया, उसमें से रस बहने लगा। आग बुझ गयी। परम भाग्यवती सच्चिदानन्द-प्रेमिका गोपी-प्रेम का उलाहना देती हुई-सी बोली-
मुरहर! रन्धनसमे मा कुरु मुरलीरवं मधुरम्।
नीरसमेधो रसतां कृशानुरप्येति कृशतरताम्।।
‘हे मुरारे! भला, भोजन बनाते समय तो कृपाकर इस मुरली की मधुर तान न छेड़ा करो। देखो, तुम्हारी मुरली ध्वनि से मेरा सूखा ईंधन रसयुक्त होकर रस बहाने लगता है, जिससे चूल्हे की आग बुझ जाती है।’ इस जादूभरी मुरली के नाद ने सब को उन्मत्त कर दिया। महान योगी भी इससे नहीं बचने पाये। बचते भी कैसे? योगियों के अनाहत नाद की जननी तो यह मुरली ही है। वंशी ध्वनि महिमा गाते हुए भक्त कहते हैं-